राशिद अयाज़ (रांची रिपोर्टर)
झारखंड। 1855 में संताल परगना में अंग्रेजों की दमनात्मक नीतियों के खिलाफ संताल योद्धा सिदो और कान्हू द्वारा छेड़े गए संताल विद्रोह की धमक बिहार और बंगाल में भी सुनाई पड़ी थी। भले ही झारखंड राज्य बन जाने के बाद संताल परगना बिहार से अलग हो गया है, पर उन दिनों संताल परगना का शासन भागलपुर के कलक्टर और कमिश्नर के अधीनस्थ था। आइए जानते हैं ‘संताल हूल’ के नाम से प्रसिद्ध संताल विद्रोह की अमर नायिकाएं फूलो और झानो की कहानी। औपनिवेशिक पराधीनता के दिनों में झारखंड के पर्वत-पहाड़ियों, घने जंगलों वह दूर-दराज के गावों में आदिवासी योद्धाओं के साथ ऐसी कई वीरागनाएं भी हुईं जिन्होंने जल, जंगल और जमीन तथा शोषण-अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह की आवाज उठाई थीं। स्वतंत्रता सेनानी हरिहर माझी की पत्नी बिलजी मिर्धा ने आजादी की लड़ाई में जोश-खरोश के साथ शिरकत करते हुए पुलिस की गोली लगने से शहीद हुई तो गुमला जिला के बबुरी गाव की देवमनिया ने अपने जिले के सिसई क्षेत्र में थाना भगत आदोलन का नेतृत्व किया। संताल हूल के नायक सिदो की पत्नी सुमी मुर्मू ने पूरी शिद्दत से अपने पति की मुहिम में साथ दिया। बिरसा मुंडा के ‘उलगुलान’ के सेनापति गया मुंडा की पत्नी माकी मुंडा ने भी बढ़-चढ़कर सक्रियता दिखाई। जिनपर उलगुलान के बाद मुकदमा चला और उन्हें दो साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। खड़िया आदोलन के नेता तेलागा खड़िया की पत्नी रतनी खड़िया ने अपने पति के वीरगति प्राप्त होने के बाद आदोलन को आगे बढ़ाया। झारखंड की इन वीरागनाओं में दो नायिकाओं के नाम बड़े ही आदर के साथ लिए जाते हैं। ये नाम हैं फूलों और झानो।
संथाल विद्रोह की महिला क्रांतिकारी फूलो और झानो मुर्मू
यह उन दिनों की बात है जब झारखंड वृहत्तर बंगाल में बिहार के साथ संयुक्त था। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दो वर्ष पूर्व 1855 में अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत में हथियार उठाने वाली आदिवासी नायिकाओं में फूलो और झानो के नाम अग्रणी हैं। भले ही इतिहास ने उनकी अभीतक सुधि नहीं ली है, पर संताल परगना के पारंपरिक गीतों में आज भी उनके नाम पूरी श्रद्धा के साथ लिए जाते हैं – फूलो झानो आम दो तीर रे तलरार रेम सा आकिदा। अर्थात, फूलो-झानो तुमने हाथों में तलवार उठा लिया। फूलों और झानो जुड़वा बहनें थीं। जिनका जन्म 1832 में बरहेट के भोगनाडीह गाव (साहेबगंज जिला) में हुआ था।
संथाल विद्रोह की महिला क्रांतिकारी फूलो और झानो मुर्मू
फूलो और झानो 1855 में हुए संताल विद्रोह के नायक सिदो और कान्हो की बहन थीं। जिन्होंने आदिवासी महिलाओं का समूह बनाकर आदिवासी नायकों से कंधा मिलाकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया था। संताल हूल में फूलो और झानो की महती भूमिका संताल महिलाओं को एकजुट करने व संदेशवाहक के रूप में रही। एक ओर जहा उनके भाई सिदो, कान्हू, चाद और भैरो ने हूल का नेतृत्व किया, वहीं इन दोनों बहनों ने हूल के उद्देश्य व संदेशों को जंगल, नदी-नालों तथा पहाड़ियों को लाघकर आदिवासी जनों तक पहुंचाया। संताल हूल के आगाज हेतु बरहेट के भोगनाडीह गाव (साहेबगंज जिला) में सिदो-कान्हू की अगुवाई में होनेवाली संतालों की महती सभा की सूचना साल के पत्तों को गाव -गाव में बाटकर पारंपरिक आदिवासी विधि से फैलाने में केंद्रीय भूमिका निभाई। इन दोनों बहनों ने हूल की आग को इस कदर राजमहल की पहाड़ियों में फैला दिया कि इसकी आच ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) तक पहुंच गई थी। कहते हैं फूलो और झानो ने रात के अंधेरे में पाकुड़ के निकट संग्रामपुर स्थित अंग्रेजों की सैनिक छावनी में घुसकर कुल्हाड़ी से वार कर 21 गोरे सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था और अंतत: संघर्ष करते हुए खुद भी शहीद हो गई थीं। अदम्य साहस का परिचय देनेवाली इन दो वीरागनाओं के बारे में संताली लोकगीतों में वर्णित है कि ‘आम दो लट्टू बोध्या को अलहारे बहादुरी उदु केदा। अर्थात, तुमने (फूलो-झानो) अपने बड़े भाईयों (सिदो-कान्हू) से भी बढ़कर बहादुरी दिखाई है। भले ही इतिहास ने उनकी सुधि न ली हो, पर संताल परगना के लोग उनका नाम बड़े आदर से लेते हैं। झारखंड के अलग राज्य बन जाने के बाद राज्य सरकार ने भी उनकी स्मृति में कई कार्य किये हैं। आज दुमका के बायपास मोड़ पर उनकी आदमकद मूर्तिया उनके बलिदान की गौरवगाथा बयां कर रही है।
संथाल विद्रोह की महिला क्रांतिकारी फूलो और झानो मुर्मू
झारखंड सरकार ने इनके नाम पर हंसडीहा में ‘फूलो-झानो डेयरी टेक्निकल कालेज’ की स्थापना की है, तो वहीं दुमका मेडिकल कालेज का नाम बदलकर ‘फूलो-झानो मेडिकल कालेज-अस्पताल’ कर दिया है। इतना ही नहीं, राज्य में ताड़ी, महुआ, शराब आदि बेचकर गुजर-बसर करनेवाली गरीब आदिवासी महिलाओं को चिह्नित कर उन्हें सम्मानजनक रोजी-रोजगार मुहैय्या कराने हेतु इन वीरागनाओं के नाम पर ‘फूलो-झानो आशीर्वाद योजना’ का भी शुभारंभ किया है। औपनिवेशिक दासता के खिलाफ आवाज उठानेवाली वीरागनाओं में फूलो और झानो के नाम नि:संदेह अग्रिम पंक्तियों में आते हैं। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष पर फूलो-झानो की स्मृतियों को उचित स्थान देकर हम अपनी गलतियों को सुधार सकते हैं। – प्रस्तुति : शिव शकर सिंह पारिजात