झारखंड के वीर शहीद बुधु भगत, जिन्‍होंने तीर-धनुष व कुल्‍हाड़ी से अंग्रेजों की बंदूक का किया सामना

Jharkhand's brave martyr Budhu Bhagat, who faced the British guns with arrows, bows and axes

रांची। स्वतंत्रता संग्राम के कई नायक गुप्त तरीके से अपना योगदान देते रहे और देश को आजादी की राह पर ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे। यही कारण था कि उनका यह संघर्ष और नामुमकिन सा लगने वाला उनका साहस इतिहास के पन्नों का हिस्सा नहीं बन सका। ऐसे गुमनाम नायकों में शामिल झारखंड के वीर शहीद बुधु भगत के बारे में बता रहे हैं हिमकर श्याम…

आजादी की लड़ाई में झारखंड के आदिवासी क्रांतिकारियों की भूमिका अविस्मरणीय है। अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे पहले विद्रोह करने वाले झारखंड के आदिवासी क्रांतिकारी ही थे। इनमें बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, तिलका मांझी, वीर तेलंगा खड़िया, नीलांबर-पीतांबर आदि नायक बनकर उभरे। वहीं कई छोटे विद्रोहों, संघर्षों व उनके नायकों की दास्तान अनकही रह गई। दरअसल, वे गुप्त तरीके से योगदान देते रहे और देश को आजादी की राह पर ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे। यही कारण था कि उनका संघर्ष और साहस इतिहास के पन्नों का हिस्सा नहीं बन सका। गुमनामी के शिकार ऐसे नायकों में वीर शहीद बुधु भगत का नाम प्रमुख है। वीर बुधु भगत लरका और कोल विद्रोह के नायक थे। उन्होंने शोषण, दमन और अत्याचार का मुखर विद्रोह किया और जनजातीय समाज में राष्ट्रीय चेतना की स्थापना की।

ऐसे जागा स्वाभिमान

रांची जिले के चान्हो प्रखंड के अंतर्गत कोयल नदी के तट पर स्थित सिलागाई गांव में 17 फरवरी, 1792 को एक उरांव किसान परिवार में जन्म लेने वाले बुधु भगत बचपन से ही तलवारबाजी और धनुर्विद्या का अभ्यास करते थे। कहा जाता है कि उन्हें दैवीय शक्तियां प्राप्त थीं, जिसके प्रतीकस्वरूप एक कुल्हाड़ी वह हमेशा साथ रखते थे। वीर बुधु भगत बचपन से ही जमींदारों और फिरंगी सेना की क्रूरता देखते आए थे। आदिवासी इलाकों में गोरी हुकूमत की चरम बर्बरता देख उनका स्वाभिमान जागा और वे स्वाधीनता की लड़ाई में कूद पड़े। वे सभी धर्मों व जाति के लोगों को संगठित कर फिरंगियों से लड़े और शहीद हो गए।

किया क्रांति का शंखनाद

शूरवीर आदिवासी क्रांतिकारी बुधु भगत का पूरा जीवन राष्ट्र की अस्मिता और समाज के उत्थान के लिए समर्पित था। 1831 में उन्होंने सिंहभूम क्षेत्र में कोल विद्रोह का नेतृत्व किया। कोल विद्रोह सिर्फ आदिवासियों का विद्रोह नहीं था। यह अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता का भी आंदोलन था। यह संगठित कोल विद्रोह रांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैला। इस प्रकार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पहले ही बुधु भगत ने देश की आजादी का शंखनाद कर दिया था। उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए 1832 में लरका विद्रोह का नेतृत्व किया। यह आंदोलन सोनपुर, तमाड़ एवं बंदगांव के मुंडा मानकियों का आंदोलन न होकर छोटानागपुर की जनता का आंदोलन बन गया था।

घर-घर से तैयार किए बलिदानी

बुधु भगत जानते थे कि अपने शासन और संस्कृति की रक्षा करनी है, तो हर हाल में अंग्रेजों को देश से भगाना होगा। उन्होंने अंग्रेजों के शोषण से अपने समाज को मुक्त करने के लिए युद्ध का ऐलान किया। इस युद्ध में उनके तीन पुत्र हलधर, गिरधर और उदयकरण तथा दो बेटियों रुनियां और झुनियां ने भी साथ दिया। उनका सैनिक अड्डा चोगारी पहाड़ की चोटी पर घने जंगलों के बीच था, जहां रणनीतियां बनतीं। उन्होंने अपने सीमित साधनों के साथ बड़ी शक्ति के खिलाफ अपनी सेना खड़ी की। तीर-धनुष, भाला, कुल्हाड़ी और अन्य पारंपरिक हथियार बड़े पैमाने पर तैयार किए। हर गांव से एक उपनायक तैयार किया।

हिला दीं फिरंगियों की चूलें

लरका विद्रोह भयंकर रूप लेने लगा। वीर बुधु भगत ने अपने सहयोगियों के साथ फिरंगियों की चूलें हिला दी थी। उनके पराक्रम और कुशल नेतृत्व से फिरंगी घबराने लगे थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए फिरंगियों ने क्रूर तरीके भी अपनाए। बुधु भगत को पकड़ने के लिए फिरंगियों ने अपनी फौज को पूरे पहाड़ पर फैला रखा था। फिरंगी अच्छी तरह से जानते थे कि उनकी मृत्यु या गिरफ्तारी के बिना वह आंदोलन को दबा नहीं सकते। उन्हें पकड़ने के लिए उस दौर में 1,000 रुपये इनाम की घोषणा भी की गई थी। परंतु कोई भी इस इनाम के लालच में आकर उन्हें पकड़वाने को तैयार नहीं था। बुधु भगत और उनके सहयोगी जंगल और पहाड़ियों से अंग्रेजी सेना पर तीर चलाकर गायब हो जाते। इससे परेशान होकर फिरंगियों को दानापुर, पटना और बैरकपुर से सेना बुलानी पड़ी थी।

आज भी गाए जाते वीरता के गीत

इसी बीच अंग्रेजी सेना को सूचना मिली कि बुधु भगत के सहयोगी टिको गांव में हैं। 13 फरवरी, 1832 को फिरंगी कप्तान के नेतृत्व में पांच कंपनियों ने गांव को पूरी तरह से घेर लिया। गांव के लोगों को बचाने के लिए बुधु आत्मसमर्पण करना चाहते थे, लेकिन गांव के तीन सौ लोगों ने बुधु भगत के चारों तरफ सुरक्षा घेरा बना दिया। पर अंग्रेजों की बंदूक और पिस्तौल के सामने तीर और कुल्हाड़ी टिक नहीं पाई और सब अंग्रेजों की क्रूरता के शिकार हो गए। वीर बुधु भगत के साथ स्वाधीनता की लड़ाई में उनके तीन पुत्रों और बेटियों ने भी अपने प्राणों की आहुति देकर अनूठी मिसाल कायम की। इनकी वीरता का चित्रण नागपुरी तथा झारखंडी भाषाओं के गीतों में आज भी सुना जा सकता है।

ऐसा ही एक गीत है-

‘बुधु बिरस बरआ लगदस, घोड़ो मइंआं बिलिचा लगदस

टिको टोंका नू लड़ाई नना, चियारी धनु लेले भइया

घोड़ो मइंआं बिलिचा लगदस।’