अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी: भाई-भतीजावाद से खोखली होती एक राष्ट्रीय संस्था

कभी आधुनिक शिक्षा और योग्यता की मिसाल रही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) आज वंशवाद के बोझ तले दब रही है। सर सैयद का सपना टूट रहा है; अब यहां नौकरियां और सुविधाएं खून के रिश्तों पर मिलती हैं, योग्यता पर नहीं। यह लेख उजागर करता है कि कैसे रिश्तेदारी इस राष्ट्रीय संस्था को खोखला कर रही है।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू), जो कभी भारतीयों के लिए आधुनिक शिक्षा और योग्यता का प्रतीक थी, अब वंशवाद के बोझ तले दम तोड़ रही है। सर सैयद अहमद ख़ान ने जिसे नैतिक नागरिकता का गढ़ बनाने की कल्पना की थी, वह अब एक ऐसी जागीर में बदल चुकी है जहाँ नौकरियां, ठेके और शैक्षणिक सुविधाएं खून के रिश्तों के आधार पर दी जाती हैं।

दरअसल, एएमयू कैंपस में “सर सैयद का घराना” शब्द आधे मज़ाक और आधे अफ़सोस में बोला जाता है। सर सैयद नगर, न्यू सर सैयद नगर, भमोला, धोर्रा ,दोधपुर, जीवनगढ़, सिविल लाइन्स, नेशनल कॉलोनी, जमालपुर और बदरबाग़ जैसे स्टाफ कॉलोनियों में घूमिए- आपको वही उपनाम बार-बार दिखेंगे- अफ़रीदी, क़यामगंज़ी, शाहजहांपुरी, पठान, आबिदी, रिज़वी, सैयद, बाराबंकी के किदवई। एक क्लर्क का बेटा लैब अटेंडेंट, उसकी पत्नी जूनियर लाइब्रेरियन, उसका चचेरा भाई परीक्षा पर्यवेक्षक, और एक और रिश्तेदार स्कूल की प्रबंधन समिति में- जो सभी की नियुक्तियों पर मुहर लगाता है। एक केंद्रीय रूप से वित्तपोषित राष्ट्रीय संस्था एक बंद सर्कल की रिश्तेदाराना हकदारी के कारण घुट रही है।

पारिवारिक पाइपलाइन: कैसे पनपता है भाई-भतीजावाद?

आंतरिक फुसफुसाहट, बाहरी चुप्पी- नौकरी की रिक्तियां अक्सर विभागीय व्हाट्सएप समूहों और कैंपस की गपशप में पहले फैलती है। जब तक आधिकारिक सूचना एएमयू की वेबसाइट पर आती है- वो भी केवल 7–10 दिन की आवेदन समय सीमा के साथ- तब तक “घराने” के उम्मीदवार के पास नोटरीकृत दस्तावेज़, कोऑपरेटिव लैब से अनुभव प्रमाणपत्र और ऐसे लेटरहेड पर छपा सिफारिश पत्र होता है जो बाहरी उम्मीदवारों को कभी उपलब्ध ही नहीं होता।

छंटाई समितियां और बिरादरी- शॉर्टलिस्टिंग पैनल में अक्सर टॉप उम्मीदवारों के बिरादरी से संबंध रखने वाले सदस्य होते हैं। एएमयू अधिनियम ऐसे हितों के टकराव को प्रतिबंधित करता है, लेकिन इन घोषणाओं को मोबाइल ऐप की शर्तों की तरह देखा जाता है- पढ़े बिना स्वीकार कर लिया जाता है।

साक्षात्कार का गणित- 100 अंकों की नियुक्ति संरचना में 20 अंक साक्षात्कार के लिए होते हैं। एक पैनल सदस्य आसानी से अपने चचेरे भाई के अंक 68 से 72 कर सकता है, जिससे एक योग्य बाहरी उम्मीदवार 71 पर रह जाता है। अपीलें अक्सर रजिस्ट्रार की दराज में खो जाती हैं।
साक्षात्कार के बाद ट्रांसफर- अगर कोई “बाहरी” व्यक्ति नौकरी पा भी जाता है, तो उसे अक्सर किशनगंज या मलप्पुरम के कम फंड वाले केंद्रों में भेज दिया जाता है। 2022 से 2024 के बीच ऐसे पांच कर्मचारी मजबूरी में इस्तीफा दे चुके हैं। उनकी जगह फिर से विज्ञापन देकर स्थानीय रिश्तेदारों को भर्ती किया गया।

शादी: एचआर रणनीति के रूप में- कैंपस की लोककथा बताती है कि 2010 के बाद से कम से कम 30 शादियां ऐसी हुई हैं जहां दूल्हा इंजीनियरिंग में और दुल्हन सोशल वर्क में एक ही साल नियुक्त हुई और दोनों के परिवार पहले से एएमयू में कार्यरत। प्रेम अंधा हो सकता है, लेकिन एचआर रिकॉर्ड्स में वेतन श्रेणी IV और उससे ऊपर की नियुक्तियां बड़ी संयोगवश नहीं हैं।

वे आंकड़े जो एएमयू नहीं बताएगी- नवंबर 2024 की एक लीक ऑडिट रिपोर्ट- जो बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की बैठक के दौरान खींची गई तस्वीर में सामने आई- चौंकाने वाले आंकड़े उजागर करती है:

ये आंकड़े एक ऐसी संस्कृति को उजागर करते हैं जहां रिश्तेदारी योग्यता पर हावी है, जिससे दलित, ओबीसी-हिंदू, और पसमान्दा मुसलमान व्यवस्था से बाहर कर दिए जाते हैं।

शैक्षणिक पतन और छात्र मोहभंग

रिसर्च में गिरावट- जब पदोन्नति रिश्तेदारी पर आधारित हो, तो प्रतिष्ठित जर्नल में छपने की ज़रूरत घट जाती है। 2024 में एएमयू ने 2,100 स्कोपस-इंडेक्स्ड पेपर प्रकाशित किए, लेकिन उसका FWCI महज़ 0.64 था- जबकि IIT दिल्ली का 1.56 और जादवपुर यूनिवर्सिटी का 1.02 था।

पुराना पाठ्यक्रम, पुरानी सोच- वरिष्ठ संकाय, जो अपने संरक्षकों के प्रति वफादार हैं, वर्षों से सिलेबस नहीं बदलते। आठ विभाग आज भी 2015 से पहले के पाठ्यक्रम पढ़ा रहे हैं।

छात्रों का मोहभंग- छात्र जानते हैं कि “चाचा” या “मौसी” कंट्रोलर ऑफिस में हो तो फैलोशिप पक्की है। मेरिट एक मिथक है। फिर भी छात्र हार नहीं मानते- झुग्गी बच्चों के लिए नाइट स्कूल चलाते हैं, क्राउडफंडेड जर्नल छापते हैं।

कुलपति की अनुपस्थिति का शासनकाल- 2023 में विवादास्पद तरीके से नियुक्त नाइमा ख़ातून ने एएमयू के पतन को तेज़ कर दिया है। उनके पति प्रो. मोहम्मद गुलरेज़ वही कार्यकारी परिषद अध्यक्ष थे जिन्होंने उन्हें शॉर्टलिस्ट किया और वोट दिया- यह स्पष्ट हितों का टकराव अदालत ने भी नजरअंदाज कर दिया।

कार्यभार संभालने के बाद से वे “रणनीतिक अनुपस्थिति” में शासन करती हैं- हिंसक झड़पों में लापता, संदेहास्पद टेंडर में गैरहाज़िर, और शैक्षणिक समीक्षा से अनुपस्थित।
उनके कार्यकाल में:
* सुरक्षा विफलता: 16 महीनों में 27 एफआईआर, 15 अवैध हथियार बरामद, कैनेडी हॉल में गोलियां चलाई गईं।
* वित्तीय अपारदर्शिता: 112 अनुत्तरित आरटीआई, 61% ठेके बिना टेंडर के दिए गए, ₹219 करोड़ निर्माण कार्यों में गायब।
* शैक्षणिक उपेक्षा: आठ विभागों के पास 2024–25 के लिए स्वीकृत पाठ्यक्रम नहीं, 1,000 से अधिक शोध छात्रवृत्तियां लंबित।
* प्रवेश में भ्रष्टाचार: एमबीबीएस सीटें ₹40–60 लाख में बेचे जाने के आरोप।

उनकी प्रतिक्रिया? भुवनेश्वर में “समावेशी उत्कृष्टता” पर भाषण, जबकि एएमयू की लैब्स तोड़ी जा रही हैं और छात्रों का मनोबल टूट रहा है।

अलीगढ़ का शहरी ग़रीबी: एक छला गया मिशन- एएमयू का उद्देश्य अपने शहर को ऊपर उठाना था। इसके बजाय, पारिवारिक भर्ती ने स्थानीय प्रतिभाओं को बाहर कर दिया है। अलीगढ़ की साक्षरता दर 59% पर जमी हुई है- उत्तर प्रदेश के औसत से 12 अंक कम। विश्वविद्यालय का सामुदायिक विकास खंड सालाना ₹40 लाख से भी कम खर्च करता है- जो एक टेंडर घोटाले में निकलने वाली राशि के बराबर है।

भारत के मुस्लिमों में बहुसंख्यक पसमान्दा समुदाय एएमयू में नेतृत्व, रोजगार, और नीति-निर्माण से पूरी तरह वंचित है।

पूर्व छात्रों की मिलीभगत- दिल्ली, अलीगढ़ पैरेंट बॉडी एसोसिएशन, लखनऊ, रियाद और शिकागो के प्रभावशाली पूर्व छात्र जवाबदेही के बजाय नॉस्टैल्जिया चुनते हैं। उनकी मुशायरों और गोल्फ़ रीयूनियन में सर सैयद का गुणगान होता है, पर एएमयू की मंडी में तब्दील स्थिति को नजरअंदाज कर दिया जाता है। वे मामूली NIRF रैंकिंग सुधार पर तालियां बजाते हैं, पर वैश्विक रैंकिंग में 1001–1200 तक की गिरावट को नहीं देखते।
उनकी चुप्पी ही इस सड़ांध की ताकत है।

वंश परंपरा की बेड़ियां तोड़नी होंगी
एएमयू के पतन को रोकने के लिए कठोर सुधार जरूरी हैं-

  • ब्लाइंड-कोडेड आवेदन: प्रारंभिक चयन के दौरान नाम और पते को गुप्त किया जाए। जैसे ऑक्सफोर्ड और एमआईटी में होता है।
  • घूमते चयन पैनल: राष्ट्रीय शैक्षणिक पूल से एल्गोरिदम द्वारा पैनल तय हों, जहां किसी सदस्य का रिश्तेदारी संबंध निषिद्ध हो।
  • सार्वजनिक डैशबोर्ड: 48 घंटों के भीतर शॉर्टलिस्ट, स्कोर और अंतिम अंक सार्वजनिक किए जाएं।
  • पसमान्दा आरक्षण: सभी नई नियुक्तियों में 50% पद सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षित किए जाएं, जब तक उनकी भागीदारी उनकी जनसंख्या (\~85%) के बराबर न हो जाए।
  • बाहरी लोकपाल: एक स्वतंत्र अधिकारी की नियुक्ति हो, जो राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेह हो, और भ्रष्ट नियुक्तियों को रद्द कर सके व अभियोजन की सिफारिश कर सके।

कार्रवाई का समय अब है- परिवार भारतीय संस्कृति में पवित्र हो सकता है, लेकिन भाई-भतीजावाद नहीं। एएमयू की भर्ती नीति ने दोनों को मिला दिया है और एक राष्ट्रीय संस्था को कुछ परिवारों की जागीर बना दिया है।

कुलपति नाइमा ख़ातून का इस्तीफा पहला और अनिवार्य कदम है। सुरक्षा, पारदर्शिता और शैक्षणिक प्रगति सुनिश्चित करने में उनकी विफलता उन्हें नेतृत्व के लायक नहीं बनाती। उनके बाद 2017 से अब तक सभी नियुक्तियों और टेंडरों का फॉरेंसिक ऑडिट होना चाहिए, और जहाँ ज़रूरी हो, आपराधिक कार्यवाही की जाए। नेतृत्व में पसमान्दा आरक्षण से ही न्याय और जनविश्वास बहाल हो सकता है।
आंसू गैस, लाठीचार्ज और संस्थागत धोखे के बावजूद संघर्षरत एएमयू छात्र ही इस संस्था की अंतिम गरिमा हैं। वे एक ऐसी यूनिवर्सिटी के हकदार हैं जो योग्यता और ईमानदारी का सम्मान करे न कि संपर्कों के आधार पर नीलाम हो।
अब वक्त है छात्रों, पूर्व छात्रों, संसद और राष्ट्रपति महोदय के लिए हस्तक्षेप का। एएमयू की मुहर कुछ वंशों की निजी विरासत न बने। यह देश की संपत्ति है।

 

शारिक अदीब अंसारी

राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष