मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी”: पसमांदा आंदोलन के जनक, स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक सुधारक

 

यौम-ए-पैदाइश: 15 अप्रैल 1890
ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ की ओर से मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी” को उनकी यौम-ए-पैदाइश पर खिराज-ए-अकीदत पेश करते हुए उनके लिए दुआ-ए-मगफिरत की जाती है। हम प्रार्थना करते हैं कि अल्लाह तआला उनकी मगफिरत फरमाए, उनकी कब्र को जन्नतुल बकी का हिस्सा बनाए, और उन्हें जन्नतुल फिरदौस में आला मकाम अता फरमाए। आमीन।

मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी” (15 अप्रैल 1890 – 6 दिसंबर 1953) भारतीय इतिहास में एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने पसमांदा (दलित और पिछड़े) मुस्लिम समुदाय को सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वे न केवल पसमांदा आंदोलन के जनक थे, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक निष्ठावान सिपाही और समाज सुधारक भी थे। उनकी यौम-ए-पैदाइश पर हमें उनके बलिदानों, विचारों और विरासत को याद करने का अवसर मिलता है, जो आज भी सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई में प्रेरणा का स्रोत हैं। यह लेख उनके जीवन, संघर्ष, और पसमांदा आंदोलन में उनके अतुलनीय योगदान का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।

प्रारंभिक जीवन: गरीबी में जन्म, संघर्ष में पलना- मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी” का जन्म 15 अप्रैल 1890 को बिहार के नालंदा जिले के बिहार शरीफ में, मोहल्ला खास गंज में एक साधारण पसमांदा बुनकर परिवार में हुआ। उनका असली नाम अली हुसैन था, लेकिन “आसिम बिहारी” उपनाम उनके बिहार से गहरे लगाव और उनकी सादगी को दर्शाता है। उनके दादा, मौलाना अब्दुर्रहमान, 1857 की क्रांति में शामिल थे, जिससे उनके परिवार में देशभक्ति और सामाजिक चेतना की नींव पहले से मौजूद थी।

गरीबी ने उनके बचपन को कठिन बनाया, लेकिन उनके परिवार में शिक्षा और इस्लामी मूल्यों के प्रति गहरा लगाव था। छोटी उम्र से ही अली हुसैन में ज्ञान की प्यास और समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव था। 16 वर्ष की आयु में, 1906 में, उन्हें रोजगार की तलाश में कोलकाता जाना पड़ा, जहां उन्होंने उषा कंपनी में नौकरी शुरू की। इस दौरान उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, जो उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मनिर्भरता का परिचय देता है। कोलकाता में बिताए गए ये शुरुआती वर्ष उनके जीवन के उस दौर की शुरुआत थे, जहां उन्होंने सामाजिक असमानता और पसमांदा समुदाय की उपेक्षा को गहराई से महसूस किया।

पसमांदा आंदोलन की नींव और दर्शन- “पसमांदा” शब्द का अर्थ है “जो पीछे छूट गए”। यह मुस्लिम समाज के उन दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों को संबोधित करता है, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से हाशिए पर हैं। मौलाना आसिम बिहारी ने मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद, ऊंच-नीच की भावना और पसमांदा समुदायों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उनका मानना था कि इस्लाम में समानता का संदेश होने के बावजूद, सामाजिक संरचनाओं ने मुस्लिम समाज को भी जातियों में बांट दिया है, जिसे खत्म करना जरूरी है।

1908-09 में मौलाना हाजी अब्दुल जब्बार शेखपुरवी ने पसमांदा संगठन बनाने की कोशिश की थी, जो असफल रही। इस असफलता ने आसिम बिहारी को गहरा प्रभावित किया। 1911 में, उन्होंने “तारीख-ए-मिनवाल व अहलहु” (बुनकरों का इतिहास) पढ़ी, जिसने उन्हें पसमांदा समुदाय की ऐतिहासिक उपेक्षा और उनके अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी। 1912 में, मात्र 22 वर्ष की आयु में, उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के लिए एक पंचवर्षीय योजना (1912-1917) शुरू की। इस योजना के तहत उन्होंने बिहार शरीफ, पटना, और आसपास के क्षेत्रों में छोटी-छोटी सभाएं आयोजित कीं, जिनमें पसमांदा समुदाय को शिक्षा, संगठन और आत्मसम्मान का महत्व समझाया गया।

उनका दृष्टिकोण केवल अंसारी (बुनकर) समुदाय तक सीमित नहीं था। उन्होंने धुनिया, कसाई, हज्जाम, भटियारा, और अन्य पसमांदा जातियों को भी एकजुट करने पर जोर दिया। उनके सम्मेलनों में विभिन्न पसमांदा समुदायों के नेताओं को मंच दिया जाता था, और “मोमिन गजट” जैसे प्रकाशनों में उनके योगदान को स्थान मिलता था। मौलाना आसिम बिहारी का यह समावेशी दृष्टिकोण पसमांदा आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत बना।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान-  मौलाना आसिम बिहारी का योगदान केवल पसमांदा आंदोलन तक सीमित नहीं था; वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक सक्रिय और प्रेरणादायक योद्धा थे। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद, जब लाला लाजपत राय, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं को गिरफ्तार किया गया, तब आसिम बिहारी ने एक अनूठा राष्ट्रव्यापी पत्राचारिक विरोध (Postal Protest) शुरू किया। इस अभियान के तहत देशभर से लगभग डेढ़ लाख पत्र और टेलीग्राम ब्रिटिश वायसराय और रानी विक्टोरिया को भेजे गए। इस अभूतपूर्व जनआंदोलन के दबाव में ब्रिटिश सरकार को गिरफ्तार नेताओं को रिहा करना पड़ा। यह उनकी संगठन क्षमता और जनता को एकजुट करने की असाधारण शक्ति का प्रमाण था।

1940 में, उन्होंने देश के बंटवारे के खिलाफ दिल्ली में एक विशाल विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया, जिसमें लगभग 40,000 पसमांदा लोग शामिल हुए। यह प्रदर्शन न केवल उनकी नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है, बल्कि पसमांदा समुदाय की एकता और उनकी राष्ट्रीय भावना को भी उजागर करता है। भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में भी उनकी सक्रिय भूमिका थी। उनके भाषण, जो अक्सर 2-3 घंटे लंबे होते थे, जनता में जोश और चेतना जगाने का काम करते थे। विशेष रूप से, 13 सितंबर 1938 को कन्नौज में उनका 5 घंटे का भाषण और 25 अक्टूबर 1934 को कोलकाता में पूरी रात चला भाषण ऐतिहासिक माने जाते हैं। इन भाषणों में वे स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और पसमांदा समुदाय के अधिकारों की बात को एक साथ जोड़ते थे।

सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक योगदान- मौलाना आसिम बिहारी ने पसमांदा समुदाय को न केवल सामाजिक और राजनीतिक रूप से सशक्त किया, बल्कि उनकी सांस्कृतिक और शैक्षिक पहचान को भी मजबूत किया। उन्होंने बीड़ी मजदूरों, बुनकरों और अन्य श्रमिक समुदायों को संगठित किया और उनके साथ सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा की। उनकी लेखनी और पत्रकारिता ने पसमांदा आंदोलन को राष्ट्रीय मंच पर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। “मोमिन गजट” के माध्यम से उन्होंने पसमांदा समुदाय की समस्याओं, उनके अधिकारों और उनकी उपलब्धियों को उजागर किया।

उनका मानना था कि शिक्षा पसमांदा समुदाय की प्रगति का आधार है। उन्होंने स्कूलों और मक्तबों की स्थापना को बढ़ावा दिया और प्रौढ़ शिक्षा के लिए कई अभियान चलाए। इसके अलावा, उन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त रूढ़ियों, जैसे बहुविवाह और सामाजिक भेदभाव, के खिलाफ भी आवाज उठाई। उनकी यह सोच कि “जाति इस्लाम में नहीं, समाज में है” ने पसमांदा आंदोलन को एक नई दिशा दी।

उन्होंने कई संगठन स्थापित किए, जैसे कि जमीयतुल मोमिनीन, जो पसमांदा मुसलमानों के अधिकारों के लिए काम करता था। उनके प्रयासों से पसमांदा समुदाय में आत्मविश्वास और संगठन की भावना जागृत हुई, जिसने उन्हें मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर प्रदान किया।

अंतिम दिन और यौम-ए-वफात- मौलाना आसिम बिहारी ने अपना पूरा जीवन समाज सेवा, आंदोलनों और जनजागरण में समर्पित कर दिया। उनके अथक परिश्रम का असर उनकी सेहत पर पड़ने लगा था। 1953 में, जब वे इलाहाबाद में यूपी प्रदेश जमीयतुल मोमिनीन के सम्मेलन की तैयारियों में व्यस्त थे, उनकी तबीयत अचानक बिगड़ गई। शरीर में एक कदम चलने की ताकत न होने के बावजूद, उनका जुनून और मिशन के प्रति समर्पण कम नहीं हुआ। अंततः, 6 दिसंबर 1953 को रात करीब 2 बजे हृदय गति रुकने से उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु ने पसमांदा आंदोलन को एक बड़ा झटका दिया। उनके समकालीन और अनुयायियों ने उनके निधन को एक युग का अंत माना। लेकिन उनकी शिक्षाएं, उनके विचार और उनका दृष्टिकोण आज भी जीवित हैं और पसमांदा समुदाय को प्रेरित करते हैं।

मगफिरत की दुआ
मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी” की यौम-ए-पैदाइश पर हम उनके लिए दुआ करते हैं:
“ऐ अल्लाह! मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी की मगफिरत फरमा, उनकी कब्र को रोशन कर, उनके नेक कामों को कबूल कर, और उन्हें जन्नतुल फिरदौस में आला मकाम अता फरमा। हमें उनके दिखाए रास्ते पर चलने की तौफीक दे। आमीन।”

विरासत और समकालीन प्रासंगिकता- मौलाना आसिम बिहारी की विरासत पसमांदा आंदोलन के लिए एक अमर प्रेरणा है। उन्होंने मुस्लिम समाज में जातिगत भेदभाव के खिलाफ जो लड़ाई शुरू की, वह आज भी प्रासंगिक है। उनके प्रयासों ने पसमांदा समुदाय को अपनी पहचान, अधिकारों और आत्मसम्मान के प्रति जागरूक किया। आज के समय में, जब सामाजिक न्याय, समावेशिता और समानता की बात होती है, मौलाना आसिम बिहारी के विचार और कार्य और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

उनका जीवन हमें सिखाता है कि सीमित संसाधनों और विपरीत परिस्थितियों में भी, दृढ़ संकल्प, सच्ची नीयत और सामाजिक चेतना से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। उनकी यौम-ए-पैदाइश पर हमें उनके आदर्शों को अपनाने और पसमांदा समुदाय के उत्थान के लिए काम करने का संकल्प लेना चाहिए।

ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ का संदेश- ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी” के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। उनकी यौम-ए-पैदाइश के अवसर पर हम न केवल उनके योगदान को याद करते हैं, बल्कि यह भी प्रण करते हैं कि पसमांदा समुदाय के अधिकारों, शिक्षा और सामाजिक सम्मान के लिए उनकी शुरू की गई लड़ाई को और मजबूत किया जाएगा। हम सभी पसमांदा भाइयों और बहनों से अपील करते हैं कि वे मौलाना आसिम बिहारी के विचारों को अपनाएं और सामाजिक एकता के लिए मिलकर काम करें।

मौलाना अली हुसैन “आसिम बिहारी” एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने न केवल पसमांदा समुदाय के लिए, बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिए समानता, न्याय और भाईचारे का सपना देखा। उनकी यौम-ए-पैदाइश हमें उनके बलिदानों को याद करने और उनके मिशन को जीवित रखने का अवसर देती है।

लेखक:
मुहम्मद युनुस
मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ)
ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़