जनाब अब्दुल कय्यूम अंसारी 1938 में पटना सिटी का उपचुनाव लड़ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भी दिल्ली से पटना गये लीगियों को नवाब हसन के घर पटना सिटी में उम्मीदवार बनाने हेतु दरख्वास्त दी। अंसारी जी बाहर गेट तक लौटे ही थे किं अंदर से कहकहे के साथ आवाज आई कि अब तो जुलाहे भी एम०एल०ए० बनने का ख्वाब देखने लगे हैं। अंसारी जी अंदर कमरे में गये और दरख्वास्त लेकर वही फाड़ दी। अली इमाम आदि जो लीग के बहुत बड़े नेता थे, अंसारी जी को उनकी ये बात जख्मी शेर बना गई। अंसारी जी को यह बात गांधी जी को अफ्रीका में अंग्रेजों द्वारा चलती ट्रेन से उतार दिये जाने जैसा अपमानित महसूस हुआ। उस घटना से उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा। अंसारी जी को इस टीस ने पसमान्दा समाज का खिदमतगार बनाकर आसमान की बुलंदियों तक पहुँचा दिया।
मुजाहिदे आज़ादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अब्दुल कय्यूम अंसारी मरहूम 1946 से 1969 तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे और कैबिनेट मंत्री पद पर रहे तथा 1970 में राज्य सभा के लिए चुने गये। उस समय पसमान्दा समाज के व्यक्ति का सियासत में आना बहुत बड़ी बात थी और लोहे के चने चबाना जैसा था क्योंकि हकूमत करना ब्राह्मणों सय्यदों का जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता था। इसलिए वो हमेशा चन्द नवाब, जमींदारों की आंखों में चुभते रहे। अंसारी जी गरीब, कमजोर, पसमान्दा समाज का दर्द समझते थे। इसलिए उन्होंने बिहार में शिक्षा मंत्री का पद संभालते ही शिक्षा की फीस माफ कर दी जिससे कि हर घर में तालीम की रोशनी पहुँच सके। दूसरी बार जेल मंत्री के पद पर रहते कैदियों के लिए मुज्ज्फरपुर जेल में हाईस्कूल खुलवाया जो अब इन्टर तक है। उसमें हजारों कैदी तालीम हासिल करके सुधर चुके हैं। देश और कौम के रहनुमाओं का शरीर रुपोश होने के बाद भी उनके मिशन का चिराग हमेशा मुल्क और कौम को रोशनी पहुँचाता है क्योंकि महबूब रहनुमाओं के पैरोकार इस चिराग में तेल भरने को काम अंजाम देते रहते हैं। अब्दुल कय्यूम अंसारी जी के मिशन का दिया रहती दुनिया तक जलता रहेगा। अंसारी जी 1 जुलाई 1905 को बिहार के डेहली आनसोन में एक दरमियाने परिवार में पैदा हुए तथा 18 जनवरी, 1973 को हम से जुदा हो गये। आपने शिक्षा, कोलकाता, इलाहाबाद व अलीगढ़ में हासिल की। शिक्षा के दौरान ही मुल्क की आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने लगे तथा फरवरी 1922 में आपको सहरसा जेल में डाल दिया गया तथा 31 मार्च 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे अंसारी जी जख्मी शेर की तरह तिलमिला उठे।
अंसारी जी मुम्ताज सियासतदां अजीम वतन परस्त और पसमान्दा समाज के हसूल मुहाफिज थे। उन्होंने पसमान्दा समाज में जागरुकता लाने व पिछड़े समाज को गहरी नींद से जगाने का जो कारनामा अंजाम दिया उसके लिए उन्हें रहती दुनिया तक याद किया जायेगा और जब भी दबे-कुचले समाज की तारीख लिखी जायेगी उनके जिक्र के बगैर अधूरी और ना मुकम्मल मानी जायेगी। अंसारी जी जमींदारी, निज़ाम देश के बंटवारे के सख्त खिलाफ थे। 1939 में जब स्टेफोर्ड क्रिप्स भारत आये तो नेहरुजी से मालूम किया कि जिन्ना के मुकाबले में कांग्रेस के साथ कौन से मुस्लिम लीडर हैं जो अवाम में मकबूल हैं तब पंडित जी तीन नाम लिये थे।
(1.) खान अब्दुल गफ्फार खां (2) मौलाना हुसैन अहमद मदनी और (3.) मोमिन पार्टी के नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी जो गरीब कमजोर पसमान्दा अवाम में बेइन्तहा मकबूल है।
8 दिसम्बर 1939 को स्टेफोर्ड क्रिप्स को नेहरुजी के मौजूदगी में अंसारी जी ने बताया था कि कांग्रेस सिर्फ हिन्दुओं का दल नहीं है बल्कि 5 करोड़ मोमिन कार्यकर्ता कांग्रेस के स्वतंत्र आंदोलन के साथ हैं। 24 दिसम्बर 1939 को क्रिप्स ने वायसराय को मोमिन पार्टी के राष्ट्रीय स्वतंत्र आंदोलन में भागीदारी के बारे में बताया। 9 अक्टूबर 1939 को अंसारी जी ने मोमिन पार्टी के नायब सदर की हैसियत से कांग्रेस में राष्ट्रीय सदर डा० राजेन्द्र प्रसाद ने टेलीग्राम का जवाब देते हुए लिखा था कि मोमिन पार्टी के 5 करोड़ कार्यकर्ता मुस्लिम लीग को कभी मान्यता नहीं देते। हमारी ये चेतावनी कांग्रेस और लीग समझौता संधि के खिलाफ है। 13 अक्टूबर 1939 को डा० राजेन्द्र प्रसाद ने टेलीग्राम का जवाब देते हुए लिखा कि किसी समझौते का प्रस्ताव नहीं है। इसी तरह के टेलीग्राम अंसारी जी ने पंडित नेहरु और गांधाजी को भी लिखे कि मिस्टर जिन्ना केवल नवाबों जागीरदारों के नेता है, गरीब कमजोर पसमान्दा मुसलमान उन्हें अपना नेता नहीं मानते और ना ही पसमान्दा मुसलमान भारत की मिट्टी में दबी अपने बुजुर्गों की हड्डियों को छोड़कर पाकिस्तान जाना चाहते हैं। इसलिए फिरका आ सके, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लगातार वारनिंग के बावजूद दिसम्बर 1944 को गांधीजी ने जिन्ना से कांग्रेस मतभेदों, फिरका परस्त व हिन्दू-मुस्लिम एकता व भारत की अखण्डता के सवाल पर बात की, ताकि भारत की आजादी के लिए साझा कोशिश से कोई समझौता हो और गांधीजी ने कहा कि मुस्लिम लीग मुसलमानों का सबसे ताकतवर संगठन है और आप इसके सदर की हैसियत से पूरे भारत के मुसलमानों के नुमाइन्दे हैं। यहीं से मुस्लिम लीग को ताकत मिलती चली गई और जिन्ना उल्टी सीधी मागे सभी मुसलमानों को सामने रखकर करने लगे तथा मोमिन पार्टी व अंसारी जी का नजरअंदाज करना देश की एकता को खंडित कर गया जिसमें पसमान्दा मुसलमान सबसे ज्यादा नुकसान में रहे, जो किसी भी हालत में देश हित में नहीं था। 1946 के चुनाव में गांधी, नेहरु, पटेल व डा० राजेन्द्र प्रसाद को गलती का अहसास हुआ। जब मोमिन पार्टी भी चुनाव मैदान में अपने बल पर कूदी और बिहार की 40 मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को कड़ी टक्कर दी तथा 6 सीटें जीत ली। एक सीट कांग्रेस को मिली। उस पर भी मोमिन पार्टी का समर्थन कांग्रेस के उम्मीदवार को हासिल था। 46 के इस चुनाव को महज एक चुनाव नहीं बल्कि पाकिस्तान के गठन के सवाल पर रेफरेन्डम (रायशुमारी) कहा जाता है। जाहिर है मि० जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग पाकिस्तान बनाने के लिए अभियान चला रही थी। जबकि अब्दुल कय्यूम अंसारी और मोमिन पार्टी के लोग मजहब की बुनियाद पर पाकिस्तान गठन के खिलाफ थे। लेकिन अंसारी जी को पसमान्दा समाज का होने की वजह से सय्यद ब्राह्राणों ने हमेशा नज़रअंदाज़ किया और एहसास भी कराया। बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी। नेहरु, पटेल, अबुल कलाम आजाद व रफी अहमद किदवई आदि ने जोर देकर अंसारी जी से कहा कि आप मोमिन पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दें क्योंकि अब मुल्क आजाद होने को है। हम एक साथ मिलकर खुशियों मानयेगें। वैसे भी कांग्रेस और मोमिन पार्टी का एजेण्डा एक ही है। हालांकि अंसारी जी जिन्ना को मुसलमानों का लीडर मानने की वजह से कांग्रेसियों से नाराज थे लेकिन गांधीजी की बहुत ज्यादा इज्जत करते थे और और उनके कहने से मोमिन पार्टी का देशहित पसमान्दा समाज की भलाई के लिए कांग्रेस में विलय को राजी हो गये। बिहार में कांग्रेस की सरकार बनीं। देहली से अबुल कलाम आजाद को सरकार के गठन के लिए पटना भेजा। आजाद ने अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता का परिचय दिया तथा अंसारी जी को मंत्रीमंडल में शामिल नहीं किया तथा अबुल कलाम आजाद ये भूल गये कि अभी कुछ रोज पहले ही मैं मोगिन पार्टी को कांग्रेस में विलय करने के लिए अंसारी जी के दरवाजे पर खड़ा था। आजाद अपने करीबी शाह उमेरा को वजीर बनाना चाहते थे। वो तो खुदा भला करे सरदार पटेल जी का और उन्होंने आजाद को दिल्ली बुलाकर अंसारी जी का नाम मंत्रियों गाली लिस्ट में शामिल कराया। सरदार पटेल अंसारी जी की अवामी ताकत के कायल थे और अंसारी जी की कुर्मानियां जानते थे तथा असारी जी से बेहद लगाव रखते थे। इस तरह मनुवादियों की चाल नाकाम कर दी। जब अंसारी जी के खिलाफ लोगों ने पटेल से शिकायत की तो पटेल ने साफ कहा था कि भारत में अगर कोई सही मायनों में नेशनालिस्ट जमात है तो मोमिन अंसार की जमात है। इस बात को सरदार पटेल ने अपनी किताब में खुलकर लिखा है।
1947 में देश को आजादी मिलने के साथ ही मुल्क का बंटवारा भी हो गया। यहां के जो मुस्लिम लीगी पाकिस्तान नहीं गये वे शुरु में तो काफी शर्मिन्दा थे, लेकिन रातो-रात कांग्रेसी टोपी पहनकर पैंतरा बदलते भी उन्हें देर न लगी। मौलाना आजाद और दूसरे अशरफ नेताओं के सहारे ये तमाम लोग कांग्रेस में शामिल हो गये और वहां अच्छा पोजीशन भी हासिल कर लिया। दूसरे 1972 में बिहार के मुख्यमंत्री के लिए कांग्रेसियों में रस्साकसी चल रही थी तो तय हुआ कि जो सीनियर कांग्रेसी हो उसको मुख्यमंत्री बना दिया जाये। इत्तेफाक राय से तय पाया कि अंसारी जी इसके सही हकदार है, उनको बनाया जाये। इन दिनों एल०एन०मिश्रा केन्द्र में मंत्री थे, वो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बहुत नजदीकी माने जाते थे। उन्होंने पटना में अपने कई विश्वस्त लोगों को कह दिया कि इस बार अंसारी जी मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। बहुत से कांग्रेसियों ने अंसारी जी को मुबारकबाद भी दी लेकिन कांग्रेस में ब्राह्मणवादियों और तंग नजर के लोगों को एक नजर भी नहीं माया तथा इंदिरा गांधी के करीबी उमाशंकर दीक्षित व श्रीमती शीला दीक्षित जो ब्राह्मणवादी नजरिये के अलम्बरदार और कट्टर हिमायती थे। दोनों ने मिलकर इंदिरा जी को अंसारी जी के खिलाफ बरगलाया। इंदिरा जी ने श्री गुलजारी लाल नंदा को बिहार भेजा और वो अंसारी साहब के जूनियर तरीन कांग्रेसी श्री केदारनाथ पाण्डेय को मुख्यमंत्री बनाकर वापस आये। श्री नन्दा ने पटना के सदाकत आश्रम में वैसा ही किया जैसा कि उनको हिन्दुस्तान की किस्मत लिखने वाले ब्राह्मणों की हिदायत थी। आज पसमान्दा समाज को जगाने वाली चिंगारी शोला बन चुकी है तथा अलग-अलग पिछड़ों के जो संगठन है उनको अंसारी जी अपने-अपने समाज की आवाज को बुलंद करने को जुबान दे गये हैं।
शमीम अंसारी
राष्ट्रीय संयोजक
आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़