महावीर जी ने हमें सिखाया कि हर किसी की बात को ध्यान से सुनना चाहिए, क्योंकि सच्चाई को हर कोई अपने तरीके से देखता और समझता है। इसी सोच को ‘अनेकान्तवाद’ कहते हैं। इसको एक आसान सी कहानी से समझते हैं — कुछ अंधे लोगों को एक हाथी को छूकर बताना था कि हाथी कैसा होता है। किसी ने सूँड़ पकड़ी तो बोला, “हाथी तो साँप जैसा होता है”, किसी ने पैर छुआ तो बोला, “नहीं, हाथी तो खंभे जैसा है”, किसी ने पूँछ पकड़ी तो कहा, “नहीं, यह तो रस्सी जैसा है।” अब सब अपनी-अपनी जगह सही थे, लेकिन कोई भी पूरी सच्चाई नहीं जानता था। अगर वह अड़ जाते कि “मेरी ही बात सही है”, तो लड़ाई होती। लेकिन अगर वो एक-दूसरे की बात समझते, तो मिलकर हाथी की असली पहचान जान सकते थे। यह इस दर्शन का मूल है।
महावीर जी का यही संदेश था — दूसरों की बात को भी समझो, हो सकता है उसमें भी सच्चाई हो। यह दृष्टिकोण संवाद (मुबाहिसा) को बढ़ावा देता है और अहंकार को कम करता है।अगर हम यही सोच अपनाएँ, तो हम मानसिक हिंसा से भी बच सकते हैं। क्योंकि हिंसा सबसे पहले हमारे मन में शुरू होती है — जब हम यह मान लेते हैं कि बस मेरी ही बात सही है और बाक़ी सब ग़लत। फिर हम ग़ुस्से में बोलते हैं, ताने देते हैं, अपमान करते हैं — यही मन की हिंसा है। अनेकान्तवाद हमें सिखाता है कि सोच में नम्रता रखो, दूसरों की बातों को सुनो और समझो। यही असली श्रद्धांजलि है महावीर को — उनके विचारों को अपनाना और समाज में सह-अस्तित्व (coexistence) को मज़बूत करना।
~अब्दुल्लाह मंसूर