पसमांदा चेतना: बराबरी, इंसाफ़ और भाईचारे की राह

इतिहास गवाह है कि जब भी किसी समाज ने धर्म या जाति के नाम पर सत्ता की राजनीति की, तो उसका सबसे ज़्यादा नुकसान उसके ही कमजोर और पिछड़े वर्गों को हुआ।
मुस्लिम लीग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है — जो कभी ‘मुसलमानों के हक़’ की बात करने का दावा करती थी, लेकिन हकीकत यह थी कि इस पार्टी को ज़्यादातर ऊँची जाति यानी अशराफ़ तबके के लोग ही चलाते थे।
उन्होंने मुसलमानों के नाम पर राजनीतिक सौदे किए, लेकिन सत्ता, संसाधन और पहचान का असली फायदा उन्हें ही मिला।
पसमांदा मुसलमानों की आवाज़ उस वक्त भी दबा दी गई थी, और अफसोस की बात यह है कि यह प्रवृत्ति आज भी जारी है।

धार्मिक पहचान की इस राजनीति ने मुसलमानों के भीतर जातीय विभाजन और नफ़रत की गहरी खाई पैदा कर दी। समाज के उच्च तबके ने नेतृत्व, शिक्षा, रोज़गार और धार्मिक संस्थाओं — सब पर कब्ज़ा कर लिया।
वहीं, पसमांदा समाज, जो मुसलमानों की आबादी का लगभग 85% हिस्सा है, आज भी हाशिये पर है — न राजनीतिक नेतृत्व में उनकी हिस्सेदारी है, न धार्मिक मंचों पर उनकी मौजूदगी।
भारत-पाकिस्तान का बँटवारा इसी सत्ता-लालच और ऊँची जातीय मानसिकता का परिणाम था।
उस बँटवारे ने करोड़ों लोगों को बेघर कर दिया, रोज़गार छीने, परिवार टूटे — और इन सबका सबसे बड़ा बोझ पसमांदा मुसलमानों पर पड़ा।
वे ही शिकार हुए, जबकि जिनके इशारे पर यह राजनीति हुई थी, वे सुरक्षित और सत्ता के करीब रहे।

लेकिन इस इतिहास में एक ऐसा पन्ना भी है, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए —
वो पन्ना है अब्दुल कय्यूम अंसारी और उनके जैसे महान पसमांदा नेताओं का, जिन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले इस बँटवारे और ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ का डटकर विरोध किया।
उन्होंने साफ़ कहा था — “भारत के मुसलमान इस मिट्टी का हिस्सा हैं, और उनका भविष्य इसी देश के साथ जुड़ा हुआ है।”
यह वही सोच थी जो इंसाफ़, बराबरी और राष्ट्रभक्ति पर आधारित थी — और यही सोच आज पसमांदा चेतना की नींव है।

पसमांदा सोच इस विचार को मानती है कि धर्म या जाति के नाम पर “हम मज़लूम हैं” या “हम ख़तरे में हैं” जैसी राजनीति असल में एक राजनीतिक भ्रम है —
जिसका फायदा केवल ऊँचे तबके के नेताओं और धार्मिक ठेकेदारों को मिलता है।
वे ‘मुस्लिम एकता’ के नाम पर खुद की सत्ता मजबूत करते हैं, लेकिन पसमांदा समाज के लिए कुछ नहीं बदलता।
मदरसों में वही चेहरे, इमारतों में वही लोग, और मंचों पर वही आवाज़ें — जहाँ पसमांदा मुसलमानों की मौजूदगी ना के बराबर है।

हमारा संघर्ष धर्म के नाम पर नहीं है, बल्कि बराबरी, न्याय, शिक्षा, रोज़गार, और सम्मानजनक जीवन के अधिकार के लिए है।
पसमांदा चेतना का मतलब है — अपने समाज की दशा और दिशा को समझना, अपनी असली ताकत को पहचानना, और उस व्यवस्था को चुनौती देना जिसने हमें हाशिए पर रखा

पसमांदा चेतना का मूल दर्शन- पसमांदा चेतना किसी धर्म, सम्प्रदाय या समुदाय के खिलाफ़ नहीं है। यह किसी को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं, बल्कि अपने हक़, अपने अस्तित्व और अपने सम्मान की पुनर्स्थापना है। यह सोच कहती है कि जब तक समाज के हर वर्ग को बराबर का दर्जा और अवसर नहीं मिलेगा, तब तक न मुसलमानों का विकास होगा, न भारत का।

पसमांदा आंदोलन का उद्देश्य नफरत नहीं, बल्कि सुधार है।
हम यह मानते हैं कि: धर्म इंसानियत को जोड़ने का माध्यम है, न कि सत्ता की सीढ़ी।
जो राजनीति धर्म या जाति के नाम पर लोगों को बाँटती है, वह समाज के लिए ज़हर है।

सच्चा धर्म वह है जो इंसाफ़, समानता और भाईचारे को बढ़ावा दे
आज की ज़रूरत: आत्मनिर्भर और सशक्त पसमांदा नेतृत्व
आज पसमांदा समाज को यह समझना होगा कि जब तक हम अपने लिए संस्थाएँ नहीं बनाएँगे,
अपनी आवाज़ खुद नहीं उठाएँगे, तब तक हमारे नाम पर फैसले होते रहेंगे और हम सिर्फ़ दर्शक बने रहेंगे।

अब वक्त है कि पसमांदा समाज अपनी संस्थागत ताकत बनाए —
पसमांदा इमारत-ए-शरिया, पसमांदा जमात-उल-उलेमा-ए-हिन्द, और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड —

जहाँ पसमांदा उलमा, मौलवी, मौलाना, इमाम, हाफ़िज़ और क़ारी अपनी बात रख सकें,
अपने समाज के मसलों पर निर्णय ले सकें और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए दिशा तय कर सकें।

हमारे समाज में ऐसे हजारों उलमा और बुद्धिजीवी हैं जो ईमानदारी, विद्वता और सामाजिक चेतना रखते हैं —
जरूरत है कि उन्हें सम्मान, मंच और अवसर दिया जाए।

पसमांदा चेतना का उद्देश्य: शिक्षा, इंसाफ़ और भाईचारा

पसमांदा चेतना का असली लक्ष्य समाज में बराबरी, इंसाफ़ और भाईचारा कायम करना है।
हम धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, वैज्ञानिक सोच और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर एक बेहतर समाज बनाना चाहते हैं।
हमारा विज़न एक ऐसा भारत है जहाँ इंसान की पहचान उसकी जाति नहीं, बल्कि उसकी काबिलियत और इंसानियत से हो।

पसमांदा चेतना कहती है कि: शिक्षा सबसे बड़ी ताकत है, एकता सबसे बड़ा हथियार है, और भाईचारा सबसे बड़ा संदेश है।

पसमांदा चेतना एक जागरूकता है —
जो हमें इतिहास से सीखने, वर्तमान को समझने, और भविष्य को बेहतर बनाने की प्रेरणा देती है।
यह हमें बताती है कि पसमांदा समाज की बर्बादी का कारण धार्मिक नफ़रत नहीं, बल्कि अवसरों की कमी और असमानता की साजिश है।

अब वक्त है कि हम एकजुट होकर कहें —
हम अपनी पहचान खुद तय करेंगे, हम अपने बच्चों का भविष्य खुद बनाएँगे, और हम धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति का हिस्सा नहीं, बल्कि इंसाफ़ और बराबरी की आवाज़ बनेंगे।

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ इस मिशन के साथ काम कर रहा है कि हर पसमांदा मुसलमान अपने हक़, अपने अधिकार और अपने योगदान पर गर्व करे, और देश की तरक्की में समान भागीदार बने।
मुहम्मद यूनुस ,सीईओ
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़