पसमांदा आंदोलन का उद्देश्य- ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन है, जिसका उद्देश्य पसमांदा मुस्लिम समाज के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य संबंधी विकास के साथ-साथ वैज्ञानिक सोच (Scientific Temper) को बढ़ावा देना है। संगठन सरकारों से यह मांग करता है कि पसमांदा समाज को उनके अधिकारों और ज़रूरतों के अनुसार योजनाओं, संसाधनों और सुविधाओं का समुचित लाभ मिले। साथ ही यह संगठन यह सुनिश्चित करता है कि सरकारी योजनाएं सही रूप में समाज के वंचित तबके तक पहुँचें।
महाज़ क़ुरआन और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सीरत और सुन्नत पर विश्वास करता है। यह संगठन हिजरत, मीसाक-ए-मदीना, सुलह-ए-हुदैबिया, “लाकुम दीनुकुम वलियदीन” और आख़िरी ख़ुतबा जैसे ऐतिहासिक इस्लामी दृष्टांतों को अपना मार्गदर्शक मानता है। यह संगठन इस्लाम में किसी प्रकार के सुधार या फिरकावाराना झगड़ों में पड़ने वाला मंच नहीं है, बल्कि यह जाति आधारित असमानताओं के विरुद्ध न्याय और समानता की आवाज़ उठाने वाला आंदोलन है।
✦ भ्रम: “इस्लाम में जाति नहीं है”
जब कभी मुसलमानों में जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता का मुद्दा उठता है, तो एक आम प्रतिक्रिया होती है:
> “इस्लाम में जाति नहीं है।”
सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है, क्योंकि क़ुरआन न किसी जाति को ऊँचा-नीचा मानता है, न किसी क्षेत्र या नस्ल को श्रेष्ठ या हीन ठहराता है।
लेकिन भारतीय मुस्लिम समाज की सामाजिक वास्तविकता और ऐतिहासिक अनुभव इसके विपरीत हैं। असली समस्या क़ुरआन के पैग़ाम में नहीं, बल्कि उसकी व्याख्या में है—और यह व्याख्या प्रायः उन लोगों ने की है जो सदियों से धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से ऊपरी पायदान पर रहे हैं
✦ धार्मिक ग्रंथ और व्याख्या: किसके द्वारा और किसके लिए?
धार्मिक ग्रंथ स्वयं नहीं बोलते—उन्हें पढ़ा और समझाया जाता है। और प्रश्न यह है कि:
> धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या कौन करता है, और किस उद्देश्य से करता है?
भारत में इस्लामी ग्रंथों की व्याख्या—क़ुरआन की तफ़सीर और हदीस की शरह—पर परंपरागत रूप से अशराफ वर्ग (जैसे सैयद, शेख़, पठान, मुग़ल आदि) का प्रभुत्व रहा है। उनकी सामाजिक स्थिति ने इस्लामी सोच को एक खास दिशा दी, जो प्रायः जातिगत श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए प्रयुक्त हुई।
उदाहरण:🔸 मौलाना अशरफ़ अली थानवी ने अपनी पुस्तक बहिश्ती ज़ेवर में ‘कुफ़ु’ (सामाजिक समानता) के नाम पर ऊँची और नीची जातियों के बीच विवाह को हतोत्साहित किया। यह इस्लाम की मूल भावना नहीं, बल्कि सामाजिक प्रभुत्व को बनाए रखने की सोच थी।
🔸 मौलाना अहमद रज़ा ख़ान ने फतावा-ए-रज़विया में भी यही विचार प्रस्तुत किया, जहाँ उन्होंने ऊँची जातियों का निकाह नीची जातियों में होने को अनुचित ठहराया।
🔸 यदि इस्लाम ने गुलामी को समाप्त करने का संदेश दिया था, तो फिर 20वीं सदी तक मुस्लिम समाजों में गुलामी क्यों बनी रही? इसका कारण यह है कि व्यावहारिक इस्लाम—जो लोग जीते हैं—वह अक्सर सामाजिक ढांचों से संचालित होता है, न कि ईश्वरीय न्याय से।
🔸 कई धार्मिक ग्रंथ जैसे हिदाया, तथा कुछ हदीसों का प्रयोग भी जाति आधारित भेदभाव को वैध ठहराने के लिए किया गया, विशेषकर पसमांदा मुसलमानों के विरुद्ध।
✦ “जाति” केवल हिंदू समाज की समस्या नहीं
यह सोच पूरी तरह ग़लत है कि जाति प्रथा केवल हिंदू धर्म में है। जाति एक सामाजिक संरचना है, जो भेदभाव, बहिष्कार और असमानता को जन्म देती है—और यह किसी भी धर्म, संस्कृति या सभ्यता में उत्पन्न हो सकती है।
✦ भारतीय मुस्लिम समाज में जातिगत भेदभाव के स्वरूप:
▪ विवाह में भेदभाव – अशराफ वर्ग, पसमांदा जातियों से विवाह नहीं करता।
▪ अलग कब्रिस्तान – दलित मुसलमानों के लिए अलग दफ़न स्थान।
▪ मस्जिद में पिछली क़तारें – पसमांदा मुसलमानों को इमाम के पीछे न रखने की परंपरा।
▪ अलग बर्तन-पानी – कुछ स्थानों पर अब भी अस्पृश्यता जैसे व्यवहार।
▪ सामाजिक बहिष्कार – पसमांदा समाज द्वारा अलग मस्जिद या संस्था बनाने पर उन्हें अलग-थलग करने का प्रयास।
✦ फिरकावारियत बनाम राजनीतिक पाखंड
इतिहास में अशराफ वर्ग ने मुसलमानों को फिरकों में बाँट दिया—बरेलवी, देवबंदी, शिया, सुन्नी, अहले हदीस, सूफ़ी आदि।
लेकिन जब चुनाव आते हैं, तो वही वर्ग “मुस्लिम एकता” के नाम पर पसमांदाओं को वोट देने के लिए प्रेरित करता है—ताकि सत्ता उन्हीं के हाथ में बनी रहे।
> यह एकता इंसाफ़ के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ के लिए होती है।
✦ इस्लाम: एक पसमांदा दृष्टिकोण
पसमांदा आंदोलन इस्लाम को सामाजिक न्याय का मज़हब मानता है—एक ऐसा धर्म जो मज़लूमों के साथ खड़ा होता है, ज़ालिमों के साथ नहीं।
यह आंदोलन उन सभी धार्मिक व्याख्याओं को नकारता है जो जातिवाद, असमानता और प्रभुत्व को वैध ठहराती हैं।
मसूद फ़लाही की चर्चित पुस्तक “हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान” इस बात को उजागर करती है कि कैसे इस्लामी शैक्षणिक ढांचे में भी जातिवाद घुसपैठ कर गया है।
पसमांदा समाज के लिए इस्लाम केवल इबादत या रिवाज़ नहीं, बल्कि इज़्ज़त, समानता, इंसाफ़ और हक़ूक़ का ज़रिया है।
✦ मस्जिद से संसद तक: प्रतिनिधित्व की माँग
आज पसमांदा समाज की माँग केवल धार्मिक स्वीकृति की नहीं है, बल्कि हर स्तर पर प्रतिनिधित्व की है—मस्जिद से लेकर संसद तक।
यह लड़ाई विचारधारा की नहीं, बल्कि संसाधनों, नीतियों और नेतृत्व पर हक़दारी की है।
> सवाल यह नहीं कि इस्लाम जातिवाद को मानता है या नहीं,
बल्कि सवाल यह है कि:
“इस्लाम की व्याख्या कौन कर रहा है, और किसके हित में?”
✦ पसमांदा संघर्ष: जानबूझकर दबाया गया आंदोलन
इतिहास गवाह है कि पसमांदा आंदोलन और नेतृत्व को हमेशा अशराफ-नियंत्रित संस्थाओं, राजनीतिक दलों और धार्मिक नेतृत्व ने कमजोर करने की कोशिश की है।
चाहे वह आसिम बिहारी की जमाअतुल मोमिनीन हो, या अब्दुल क़य्यूम अंसारी की मोमिन कॉन्फ़्रेंस—हर पसमांदा प्रयास को या तो नज़रअंदाज़ किया गया, या फिर सांप्रदायिक कहकर बदनाम किया गया।
आज भी जो नाम उठते हैं—
> अली अनवर, एजाज अली, शब्बीर अंसारी, खालिद अनीस अंसारी, डॉ. फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी, प्रो. मसूद आलम फ़लाही, अब्दुल्ला मंसूर, मुहम्मद युनुस, परवेज़ हनीफ़, शारिक अदीब अंसारी, शकील सैफी, शकील गौसी, अदनान क़मर, शमीम अंसारी, अहमद अंसारी, नज़ीर अंसारी, सुहैल अंसारी, शब्बीर आलम, डॉ. नसीम, अबू सईद, डॉ. कलीम, फ़ैयाज़ अल्वी, हाजी ताहिर शाहीन, निहाल अंसारी, अफ़ज़ल अंसारी, सगीर बाज़मी, हाशिम पसमांदा
इन सभी को कभी न कभी भटकाने, तोड़ने या हाशिये पर धकेलने की कोशिश की जाती है।
✦ मुग़लों से मोदी तक: बदलती हुई परिपाटी
मुग़ल काल से लेकर स्वतंत्र भारत के अधिकांश काल तक अशराफ वर्ग का वर्चस्व राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से बना रहा। पसमांदाओं को केवल वोटबैंक समझा गया, न कि समाज के निर्माणकर्ता।
हाल के वर्षों में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा समाज की आवाज़ को सुना है और उनके मुद्दों को नीति और संवाद में शामिल किया है। यह सिर्फ़ भाषण नहीं, बल्कि संस्थागत मान्यता की दिशा में एक ऐतिहासिक क़दम है।
✦ आंदोलन से क्रांति तक
आज का पसमांदा आंदोलन एक:
✅ वैचारिक क्रांति
✅ सामाजिक प्रतिरोध
✅ राजनीतिक जागरूकता
यह उन सभी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचों को चुनौती देता है जो अन्याय को छुपाते हैं।
> अब हम भीख नहीं माँगते—हम अपना हक़ मांगते हैं।
अब किसी बेटी की क़ुर्बानी झूठी इज़्ज़त के नाम पर नहीं दी जाएगी।
हम क़ुरआन, संविधान और सामाजिक एकता के साथ आगे बढ़ेंगे।
✦ जय पसमांदा ✦ जय संविधान ✦