पसमांदा मुसलमान स्नेह नहीं सम्मान चाहते हैं : मारूफ अंसारी

राशिद अयाज़ , रांची रिपोर्टर

लखनऊ। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ (एआईपीएमएम) के राष्ट्रीय प्रधान महासचिव मारूफ अंसारी ने हैदराबाद में प्रधानमंत्री को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान ‘पसमांदा (जो पीछे रह गए)’ शब्द का उपयोग करने के लिए धन्यवाद दिया। मारूफ अंसारी ने यह भी सवाल किया कि पिछड़े मुसलमान पहले चर्चा का हिस्सा क्यों नहीं थे और भाजपा ने अब ‘स्नेह यात्रा’ आयोजित करने के बारे में क्यों सोचा।

मारूफ अंसारी ने लिखा, “आपको पसमांदा के बारे में बात करते हुए सुनकर सुखद आश्चर्य हुआ, लेकिन पसमांदा मुसलमान ‘सम्मान’ (समानता और गरिमा) चाहते हैं, ‘स्नेह’ नहीं। ‘स्नेह’ शब्द का एक विशिष्ट अर्थ है: कि पसमांदा मुसलमानों को ‘स्नेह’ की आवश्यकता यह दर्शाता है कि वे एक निम्न वर्ग हैं जिन्हें श्रेष्ठ लोगों से संरक्षण की आवश्यकता है।”
साथ ही, अंसारी ने सवाल किया कि क्या पसमांदा समाज के लिए ‘स्नेह यात्रा’ निकालने के “अचानक कदम” का “वोट-बैंक की राजनीति से कुछ लेना-देना है।” “क्या इसका उद्देश्य मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करना नहीं है? पसमांदा मुसलमान किसी भी पार्टी का आंख मूंदकर समर्थन नहीं करते हैं। किसी भी पार्टी को उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए।”

इस बात पर जोर देते हुए कि एआईपीएमएम की लड़ाई संवैधानिक ढांचे के भीतर है, अंसारी ने लिखा: “ऐसा नहीं है कि हम पसमांदा मुसलमान अलग से कुछ खास मांग रहे हैं; बल्कि हम, मुसलमान होने के नाते, मांग कर रहे हैं कि हमारे साथ किए जा रहे भेदभाव को तुरंत रोका जाए। यही मांग हमारे ईसाई दलितों की भी है। उन्हें ईसाई होने की सजा भी दी जा रही है। हमारा शुरू से ही दृढ़ विश्वास रहा है कि अकेले पसमांदा मुसलमान इस लड़ाई को नहीं जीत सकते। हम सभी धर्मों के पसमांदा दलितों और अन्य प्रगतिशील और न्यायप्रिय लोगों की मदद से ही सफल हो सकते हैं।

‘पसमांदा’ शब्द का व्यापक इस्तेमाल अली अनवर अंसारी ने ही किया
1998 में AIPMM का गठन करने वाले अनवर भले ही ‘पसमांदा’ शब्द का इस्तेमाल करने वाले पहले व्यक्ति न हों, लेकिन उन्हें व्यापक रूप से इसका इस्तेमाल करने का श्रेय दिया जाता है। अंसारी ने लिखा, “पसमांदा के नाम से कोई जाति या धर्म नहीं है। सभी समुदायों – हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और अन्य – में पसमांदा, दलित और आदिवासी वर्ग के लोग हैं। इन तबकों से न सिर्फ हमारा दर्द का रिश्ता है, बल्कि हमारा डीएनए भी एक ही है। हमने अपने संगठन के नामकरण में ‘मुस्लिम’ शब्द से पहले ‘पसमांदा’ शब्द रखा है। क्योंकि ऐतिहासिक रूप से हम पहले पसमांदा हैं, मुसलमान बाद में। हमने ‘मसावत’ (समानता) के लिए इस्लाम धर्म अपना लिया है। हम, पसमांदा मुसलमान, हमारे देश, भारत के मूल निवासी हैं। मुश्किल से एक या दो फीसदी मुसलमान अरब, ईरान और इराक से भारत आए हैं।”

उन्होंने कहा, “हम ‘अकलियत’ (अल्पसंख्यक) के लोग नहीं हैं; हम अक्षरियत (बहुजन) हैं। ‘पसमांदा’ एक उर्दू-फ़ारसी शब्द है जिसका अर्थ है लोग पीछे छूट गए या उत्पीड़ित हो गए। हम ‘पसमांदा’ के रूप में जारी नहीं रहना चाहते हैं; हम ‘पेशमांडा’ (सामने से नेतृत्व करने वाले) बनने की ख्वाहिश रखते हैं।”