~अब्दुल्लाह मंसूर
पसमांदा डेमोक्रेसीमऊ नाथ भंजन एक छोटा सा शहर है। लोग आपस में मिलजुलकर व्यापार और तेहवार करते हैं। मेरे बचपन में मैंने देखा था कि सभी बच्चे सरकारी स्कूल जाते थे। सरकारी स्कूल की पढ़ाई भी ठीक-ठाक थी। कारीगर और साड़ी के दलाल/व्यापारी के बच्चे एक स्कूल में पढ़ते थे और साथ ही खेला करते थे। इससे होता यह था कि हममें आपस में एकता थी। एक दूसरे के सुख-दुःख को समझते थे। मोहल्ले में किसी के घर अच्छा खाना बना हो, तो 2 कटोरी निकाल कर मोहल्ले के गरीब के घर भेज दिया जाता था। अब भी यही नजर आता है कि मेरी उम्र के जो लड़के मऊ में हैं, उनमें आपसी समझ और भाईचारा बचा हुआ है। उनके अंदर पूरे समाज के बारे में सोचने की फिक्र मौजूद है। पर जो नई पीढ़ी है, मुझे महसूस होता है कि वे अपने समाज से बहुत दूर हैं।
शहर में पहले छोटे-छोटे व्यापारी थे पर अब व्यापार कुछ हाथों में सिमटता जा रहा है। कुछ घराने हैं जिनका मऊ के साड़ी के व्यापार पर एकाधिक होता जा रहा है। इसका असर भी वर्ग विभाजन के रूप में नज़र आ रहा है। इसकी वजह यह है कि 1990 के बाद स्वघोषित विकास का जो चक्र चला उसका असर अब इन पीढ़ियों में नज़र आता है। सरकारी स्कूल को सरकार ने धीरे-धीरे तबाह कर दिया है। अब सरकारी स्कूल में सिर्फ कामगारों के बच्चे पढ़ते हैं और साड़ी के जो दलाल/व्यापारी हैं, उनके बच्चे प्राइवेट स्कूल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करते हैं। इस शिक्षा के विभाजन ने वर्गों का भी विभाजन कर दिया है। प्राइवेट स्कूल में क्योंकि अमीरों के लड़के हैं, तो वे आपस में दोस्त बन गए, अब उन्हें मोहल्ले के जुम्मन के लड़के से कोई मतलब नहीं। पहले हम खेलने जाते थे, खेल के मैदान में बच्चे आपसी व्यवहार, प्यार सीखते थे पर अब सबके हाथ में मोबाइल है, वीडियो गेम है, ढाबे हैं। ज्यादातर युवा तो कल्पनालोक में जीते हैं, अपनी अल्फ़ा मेल वाली छवि के साथ। यह वह वर्ग है जो राजनीति को गाली समझता है, देश की समस्या पर बात करना बोरिंग काम।
यह कूल दिखने वाले अज्ञानता का चोगा ओढ़े हुए मऊ के युवा साम्प्रदायिक संगठनों के लिए चारा होते हैं। साम्प्रदायिक संगठन टेक्निकल कोर्स के छात्रों को पहले टारगेट करते हैं। जब डॉक्टर और इंजीनियर इनसे जुड़ जाएंगे, जब समाज के अंग्रेजी बोलने वाले छात्र इनसे जुड़ जाएंगे, तो सरकारी स्कूल से पढ़े युवा भी इनके पीछे-पीछे आएंगे। इन छात्रों में विश्लेषण की क्षमता को रोक कर इनको जज्बाती लेख और वीडियो के माध्यम से सतही तर्क, सन्दर्भ से कटे तथ्य और धर्म और भावना का मिला जुला कॉकटेल पिला दिया जाता है। इनके अंदर भय मनोविकृति(Fear psychosis) इतनी बड़ाई जा रही है कि यह वर्ग हर सुधार को एक साजिश की तरह देखता है, समाज सुधारक/आलोचक इनके लिए यहूदियों के एजेंट हैं। कौम खतरे में है, इस्लाम धर्म पर हमला हो रहा है। बस इसी नारे से यह उर्दू, बुरका, अलीगढ़, UCC, तलाक जैसे जज्बाती मुद्दों में घिरे रहते हैं। या तो यह वर्ग अपने कल्पना लोक में रहता है या फिर इस्लाम खतरे वाले ज़ोन में।
इनके अंदर के डर का राजनीतिक लाभ उठाते हुए आज तक ओवैसी और दूसरे अशराफ मसीहा अपनी रोटी सकते रहे हैं। मऊ में बेरोजगारी ने कमर तोड़ रखी है, छुपी बेरोज़गारी अपने चरम पर है। तकरीबन हर कामगार घर के बच्चे सऊदी के देशों में बँधुआ मज़दूरी करने जा रहे हैं। सऊदी देशों में काम करने की परिस्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। न उच्चतर शिक्षा की व्यवस्था है, न कोई लीडरशिप है और न कोई नीति जो इनको इस ग़ज़ालत से निकाल सके। अंसारियों की आबादी वाले इस शहर में कोई भी दमदार अंसारी नेता नहीं उभरता (मुख्तार अंसारी अंसारी जाति से नहीं आते हैं) जो इस शहर का हो और इस शहर के हालात जनता हो, अगर कोई उभारना भी चाहता है तो अंदर से ही उसकी टांग खिंच ली जाती है। क्यों? क्योंकि हर चुनाव में ‘कौम खतरे में’ हो जाती है और इस खतरे से कोई पसमांदा नहीं, बल्कि कोई अशराफ मसीहा ही इनको बचाएगा।
~ अब्दुल्लाह मंसूर
पसमांदा डेमोक्रेसी