पसमांदा आंदोलन और जातिवाद के खिलाफ पहली आवाज बाबा संत कबीर

11 जून 2025 को हज़रत संत कबीर रहमतुल्लाह अलैहे की जयंती पर ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ ने एक विशेष ज़ूम मीटिंग आयोजित की, जिसमें बाबा कबीर रहमतुल्लाह अलैहे को खिराज ए अकीदत पेश किया गया और उनकी मगफिरत की दुआ मांगी गई। मीटिंग की अध्यक्षता परवेज़ हनीफ ने की, जबकि संचालन मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) मुहम्मद युनुस ने किया। इसमें राष्ट्रीय, प्रांतीय, और जिला कार्यकारिणी के पदाधिकारियों के साथ पसमांदा कार्यकर्ताओं ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया। इस अवसर पर कबीर के विचारों, कविताओं, और सामाजिक सुधार में उनके योगदान को याद किया गया, खासकर मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ उनकी निर्भीक आवाज को।

डॉ. फैय्याज अहमद फैजी ने कबीर की जीवनी पर प्रकाश डाला, जबकि राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष शरिक अदीब अंसारी ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का महान संत और व्यक्तित्व बताया। समीन अंसारी ने सुझाव दिया कि कबीर की विचारधारा को पसमांदा समाज तक पहुंचाने के लिए साहित्य में शामिल किया जाए और सरकार से मांग की जाए कि स्कूल-कॉलेजों में उनकी कविताएं पढ़ाई जाएं। राष्ट्रीय सलाहकार अख्तर अंसारी ने कहा कि यदि कबीर अशराफ होते, तो उनकी मज़ार पर उर्स होता और लोग वहां मन्नत मांगने जाते। राष्ट्रीय महासचिव कमरुद्दीन अंसारी ने बताया कि पहले ग्राम पंचायत स्तर पर कबीर की कहानियां सुनी जाती थीं। हाजी ताहिर अंसारी ने कहा कि पश्चिमी यूपी में कुछ लोग कबीर को हिंदू मानते हैं, जिसका जवाब डॉ. फैय्याज ने देते हुए कहा कि अशराफ उन्हें हिंदू और ब्राह्मण उन्हें पंडित साबित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कबीर नबी करीम की सुन्नत पर चलने वाले पसमांदा मुस्लिम थे, जिन्हें हुकूमतों ने जिला बदर किया, फिर भी वे अपनी बात कहने से नहीं रुके।

राष्ट्रीय संयोजक शमीम अंसारी ने कहा कि कुरआन में मोर के पंख रखने की परंपरा थी, तो कबीर का उसे सिर पर लगाना उन्हें हिंदू कैसे बनाता है? यह अशराफ का हथकंडा है। सीईओ मुहम्मद युनुस ने बताया कि कबीर पक्के मोमिन थे, जो अंसारी-जुलाहा बुनकर परिवार में जन्मे और उनके बच्चे भी मुस्लिम थे। अशराफ ने जानबूझकर कबीर पंथ को समाज में फैलने से रोका। राष्ट्रीय अध्यक्ष परवेज़ हनीफ ने अफसोस जताया कि हिंदू संचालित विश्वविद्यालयों में कबीर पर शोध होता है, लेकिन अशराफ द्वारा संचालित संस्थानों जैसे AMU, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जामिया हमदर्द, और मौलाना आज़ाद में कबीर को जगह नहीं दी जाती।

संत कबीर (1398-1518) न केवल एक महान कवि और संत थे, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे, जिन्होंने भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी। जुलाहा (बुनकर) जाति से ताल्लुक रखने वाले कबीर ने अपनी रचनाओं में अपनी निम्न मानी जाने वाली जाति को बार-बार उजागर किया, यह साबित करते हुए कि आध्यात्मिकता और ज्ञान के लिए जाति कोई बाधा नहीं है। उनका यह दोहा इसका प्रमाण है:

“जात जुलाहा नाम कबीरा अजहुँ पतीजौ नाही”

कबीर ने हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों में व्याप्त पाखंड, अंधविश्वास, और जातिवाद की कड़ी आलोचना की। वे मुस्लिम समाज में नस्लवाद और जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने वाले पहले व्यक्ति थे। उनकी रचनाएं सामाजिक समानता, मानवता, और सत्य की खोज का संदेश देती हैं। पसमांदा आंदोलन उन्हें अपना प्रतीक मानता है, क्योंकि उन्होंने अशराफ उलेमा के वर्चस्व और सामाजिक भेदभाव का डटकर मुकाबला किया।

कबीर की कविता और कुरआन की प्रेरणा

कबीर की रचनाओं में कुरआन की आयत “ला इक्रहा फिद दीन” (धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं) का प्रभाव स्पष्ट है। उन्होंने इसे अपनी कविता में इस तरह व्यक्त किया:

 हम मिस्किन खदाई बंदे, तुमरा जस मन भावे
अल्लाह अव्वल दीन को, साहिबो जोर नहीं फरमाओ

इस दोहे में कबीर धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता का संदेश देते हैं, जो उनकी निर्गुण भक्ति और समानता की अवधारणा को दर्शाता है। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रतीक थे, जैसा कि उनके इस दोहे में दिखता है:

> तेरा मेरा मनवा कैसे एक होई रे
मैं कहता आँखन देखी, तू कहता कागद की रेखी
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राखियो उरझाई रे

यहां कबीर अनुभव और किताबी ज्ञान के बीच अंतर बताते हैं, सत्य को प्रत्यक्ष अनुभव से समझने की वकालत करते हैं।

कबीर बनाम इकबाल: जातिवाद पर दो दृष्टिकोण- कबीर और अल्लामा इकबाल की रचनाओं में सामाजिक मुद्दों पर अलग-अलग दृष्टिकोण दिखते हैं। जहां इकबाल ने अपनी ब्राह्मण जाति का उल्लेख कर जातिवाद को कायम रखने की कोशिश की, वहीं कबीर ने अपनी जुलाहा जाति को उजागर कर इसे खत्म करने का आह्वान किया। उनका यह दोहा इस सोच को दर्शाता है:

> ब्राम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान नहीं सैयद सेखवा।
अमरदेसवा !

इसमें कबीर सभी जातियों और धार्मिक पहचानों को नकारकर समानता पर आधारित समाज की कल्पना करते हैं, जिसे पसमांदा आंदोलन “अमर देसवा” कहता है।

कबीर की साहित्यिक विरासत- कबीर को अनपढ़ कहना अशराफ वर्ग की साजिश थी, ताकि उनकी विद्वता को कम किया जाए। उन्होंने फारसी में अलिफ़ नामा और अर्ज़ नामा जैसी रचनाएं लिखीं, जिनमें हजारों अशआर हैं। उनकी रचनाएं बीजक, साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं। उनके 226 दोहे गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल हैं, जो उनकी व्यापक स्वीकार्यता को दर्शाता है। उनके शिष्य धर्मदास और भागोदास ने उनकी वाणी को संरक्षित किया।

पसमांदा आंदोलन और कबीर- पसमांदा आंदोलन कबीर को मुस्लिम समाज में जातिवाद के खिलाफ पहली आवाज मानता है। अशराफ ने उन्हें सैयद या शेख साबित करने की कोशिश की, और जब यह संभव नहीं हुआ, तो उन्हें इस्लाम से अलग करने की साजिश रची। कबीर की रचनाएं इस्लाम की समावेशी शिक्षाओं से प्रेरित थीं। तेलंगाना की जातिगत सर्वे रिपोर्ट, जिसमें 80% मुस्लिम आबादी को पसमांदा पाया गया, कबीर के विचारों की प्रासंगिकता को रेखांकित करती है।

निष्कर्ष: अमर देसवा का संकल्प- कबीर की जयंती हमें याद दिलाती है कि भारत की असली समस्या धर्म नहीं, बल्कि जाति है। उनकी निर्भीकता और समानता का संदेश आज भी प्रासंगिक है। पसमांदा आंदोलन ने “अमर देसवा” की स्थापना का संकल्प लिया, जहां न जाति हो, न भेदभाव।

> कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।

आइए, कबीर के संदेश को अपनाकर समतामूलक समाज की ओर बढ़ें।