हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पैदाइश

इंसानी इतिहास का एक अहम मोड़ और आज के मुसलमानों के लिए एक आईना

हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) की पैदाइश सिर्फ़ मुसलमानों के लिए मुक़द्दस दिन ही नहीं, बल्कि इंसानी इतिहास का एक अहम मोड़ है। उनका आगमन क़ौमों की तक़दीर और तमाम तहज़ीबों की दिशा को बदल देने वाला था। उस दौर में जब अरब क़बायली जंगों, नाइंसाफ़ियों, ग़ुलामी और नैतिक पतन में डूबा हुआ था, उन्होंने ऐसा पैग़ाम दिया जिसने दुनिया को इंसाफ़, रहमत, बराबरी और तौहीद की रौशनी से रोशन कर दिया।

क़ुरआन और अपनी सुन्नत के ज़रिए उन्होंने इंसानियत को इज़्ज़त और भाईचारे की नई ज़बान सिखाई। जिन औरतों को ज़िन्दा दफ़्न कर दिया जाता था, उन्हें इज़्ज़त बख़्शी गई। ग़ुलामों को आज़ादी की उम्मीद दी गई। हुक़्मरानों को यह याद दिलाया गया कि असल क़ियादत ताक़त नहीं बल्कि ख़िदमत है। क़ुरआन ने उन्हें “आलमीन के लिए रहमत” (सूरह अल-अंबिया 21:107) कहा। हक़ीक़त में उनकी ज़िन्दगी इंसानी तारीख़ के सबसे बड़े इंक़लाबों में से एक थी।

लेकिन आज जब मैं मुसलमानों की हालत देखता हूँ, तो दिल दुखता है। उनकी वफ़ात के बाद वही उम्मत, जिसे उन्होंने मोहब्बत और क़ुर्बानियों से खड़ा किया था, बिखरने लगी। हम आपस में लड़ने लगे, हर गिरोह ने “असल इस्लाम” पर अपना दावा ठोक दिया। फिरक़ावाराना दुश्मनियाँ और अहंकार ने हमें उस रस्सी से दूर कर दिया जिससे मजबूती से पकड़ने का हुक्म क़ुरआन ने दिया: “और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और आपस में मत बंटो” (सूरह आले-इमरान 3:103)।

हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप में इस्लाम की तारीख़ बहुत ख़ूबसूरत रही है। सूफ़ी औलिया और इस्लाही रहनुमा ने मोहब्बत, शायरी और रहमत के ज़रिए दीन फैलाया—तलवार से नहीं बल्कि अपने किरदार की ताक़त से। मगर आज जब मैं बहुत से मदरसों को देखता हूँ, तो एक दर्दनाक कमी महसूस होती है। बच्चों को क़ुरआन पढ़ना और याद करना सिखाया जाता है, लेकिन बहुत कम को इसके मफ़हूम और पैग़ाम समझने के लिए तैयार किया जाता है। हम किताब का एहतिराम उसके लफ़्ज़ों और आवाज़ से करते हैं, मगर उसके मायनों से अक्सर ग़ाफ़िल रहते हैं। क़ुरआन खुद हमें पुकारता है: “क्या वे क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते, या उनके दिलों पर ताले लगे हुए हैं?” (सूरह मुहम्मद 47:24)।

कितनी अफ़सोस की बात है कि वही किताब, जो इंसानी दिमाग़ों को आज़ाद करने के लिए नाज़िल हुई थी, अक्सर सिर्फ़ रिवायती तिलावत तक महदूद कर दी गई है। अगर हमारी नस्लें उसके पैग़ाम को समझेंगी ही नहीं, तो कैसे उसकी तालीमात पर अमल कर पाएँगी?

इतना ही नहीं, हमने इस्लामी तारीख़ की तालीम से भी ग़फ़लत की है। नस्ल दर नस्ल बच्चे मदरसों से निकलते हैं मगर उन्हें ये इल्म नहीं होता कि मुसलमानों ने कैसे सियासत, साइंस, फ़लसफ़ा, तहज़ीब और अख़लाक़ को तरक़्क़ी दी थी। तारीख़ के बग़ैर हम अपने असल मीरास से महरूम हो जाते हैं और तंग-नज़राना ताबीरात के शिकार बन जाते हैं।

भविष्य का रास्ता सिर्फ़ रिवायतों या ज़बानी याद करने से तय नहीं होगा। हमें एक असल इंक़लाब की ज़रूरत है—सूरत का नहीं बल्कि रूह का। सोचने-समझने, इल्म और ग़ौर-ओ-फ़िक्र का इंक़लाब। वही पहला हुक्म जो पैग़म्बर (स.अ.व.) पर नाज़िल हुआ था, “पढ़ो, अपने उस रब के नाम से जिसने पैदा किया” (सूरह अल-अलक़ 96:1)—हमारे लिए इल्म और तफ़क्कुर को ईमान की बुनियाद बना दिया गया। तो फिर हमारे समाज में वह जज़्बा कहाँ है? हम किताबें क्यों बंद कर देते हैं और अपने ज़ेहन क्यों बंद रखते हैं?

अगर हमें वाक़ई पैग़म्बर (स.अ.व.) से मोहब्बत है, तो हमें वही चीज़ें पसंद करनी होंगी जिन्हें वे लेकर आए थे—इंसाफ़, रहमत, इत्तेहाद और इल्म। हमें फिरक़ावाराना नफ़रत की ज़ंजीरों को तोड़ना होगा, छोटी-छोटी दुश्मनियों से ऊपर उठना होगा और उनकी विदाई ख़ुत्बे का आलमी पैग़ाम ज़िन्दा करना होगा: “सारी इंसानियत आदम और हव्वा से है। किसी अरब को किसी अज़मी (ग़ैर-अरब) पर, और किसी अज़मी को किसी अरब पर कोई बड़ाई नहीं। न गोरों को काले पर और न काले को गोरे पर कोई बड़ाई है, सिवाए तक़्वा और नेक अमल के।”

पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) की पैदाइश सिर्फ़ तारीख़ का एक नया बाब नहीं थी; यह उस रौशनी की शुरुआत थी जो हमेशा इंसानियत को राह दिखाने वाली थी। उनकी पैदाइश का जश्न मनाना सिर्फ़ उनकी याद में खुशी मनाना नहीं, बल्कि उनके क़द्र-ओ-क़ीमत को अपनी ज़िन्दगी में उतारना है। हमें सिर्फ़ क़ुरआन पढ़ना ही नहीं बल्कि उसे समझना भी होगा। हमें सिर्फ़ तारीख़ याद ही नहीं रखनी बल्कि उससे सीखना भी होगा। हमें सिर्फ़ इस्लाम का दावा नहीं करना बल्कि उसे असल रूह के साथ जीना होगा।

तभी हम असल इस्लाम की रूह को पा सकेंगे—वह दीन जो इंसानियत को ऊँचा उठाता है, तफ़रक़े को मिटाता है और दुनिया को इंसाफ़ और रहमत की रौशनी से जगमगाता है।

शारिक अदीब अंसारी
नेशनल वर्किंग प्रेसिडेंट

ऑल इंडिया पसमान्दा मुस्लिम महाज़