बँटवारे का दर्द, सत्ता का लालच और पसमांदा का संघर्ष

“पसमांदा की असली लड़ाई — धर्म नहीं, बराबरी और इंसाफ़ की लड़ाई है”

“धर्म के नाम पर सत्ता की राजनीति ने पसमांदा समाज को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुँचाया”

“अब्दुल कय्यूम अंसारी की राह पर — पसमांदा समाज का दो-राष्ट्र सिद्धांत से इंकार”

“अशराफ़ राजनीति का विरोध ही पसमांदा एकता का सही रास्ता है”

“हम मज़लूम नहीं, बराबरी के हक़दार हैं — यही है पसमांदा चेतना”

इतिहास हमें बताता है कि जो मुस्लिम लीग ‘मुसलमानों के हक़’ की बात करने का दावा करती थी, उसे ज़्यादातर ऊँची जाति (अशराफ़) के लोग ही चला रहे थे। ​इस डर का नतीजा यह हुआ कि लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत और ‘कौन किस पर भारी है’ जैसी होड़ बढ़ गई। जब भी धर्म के नाम पर ऐसी राजनीति हुई, उसका असली फायदा हमेशा दोनों तरफ के सवर्ण-अशराफ़ (ऊँची जाति) के लोगों को ही मिला। उन्हें सत्ता मिली। बँटवारे का दर्द भी सत्ता के इसी लालच का नतीजा था, और इसकी सबसे भारी कीमत पसमांदा समाज को चुकानी पड़ी।

​लेकिन इतिहास का यह पन्ना भी याद रखना ज़रूरी है, जिस पर लोग कम ध्यान देते हैं: अब्दुल कय्यूम अंसारी जैसे हमारे पसमांदा नेताओं ने इस धार्मिक बँटवारे और पाकिस्तान की सोच का ज़बरदस्त विरोध किया था। हमारी जड़ें इसी इंसाफ़पसंद सोच से जुड़ी हैं। हम तब भी बँटवारे की ‘दो राष्ट्र’ वाली सोच के ख़िलाफ़ थे, और हम आज भी ऐसी किसी भी सोच के ख़िलाफ़ हैं।​पसमांदा सोच इस बात को नहीं मानती कि 1947 से ही मुसलमानों को ‘दुश्मन कौम’ मान लिया गया। हमारा मानना है कि ‘हम मज़लूम हैं’ या ‘हम ख़तरे में हैं’ की यह राजनीति भी असल में ऊँची जाति (अशराफ़) वालों को ही फायदा पहुँचाती है। यह राजनीति पसमांदा समाज की बराबरी और इंसाफ़ की असली लड़ाई को कमज़ोर कर देती है।

​पसमांदा चेतना का मतलब है कि हम धर्म के नाम पर ऊँचे तबके के इस राजनीतिक खेल को पहचानें और उसे साफ़ तौर पर खारिज कर दें। हमारा इतिहास हमें यही सिखाता है कि पसमांदा की बर्बादी का असली कारण धार्मिक नफ़रत से ज़्यादा, उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हक़ न मिलना है। ​इसलिए, बराबरी का समाज बनाने के लिए पसमांदा एकता और अशराफ राजनीति का विरोध ही हमारा सही रास्ता है।

​जय पसमांदा, जय हिंद

~अब्दुल्लाह मंसूर