मुसलमानों में जातियों और प्रतिनिधित्व का प्रश्न

राशिद अयाज़ (रांची रिपोर्टर)

मुसलमानों की कुल आबादी का सवर्ण मुसलमान लगभग 15 फीसद और दलित, पिछड़े और आदिवासी मुसलमान 85 फीसद होते हैं. 1990 के दशक में बिहार से डॉ. एजाज़ अली के ‘आल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा’, अली अनवर के ‘आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ और महाराष्ट्र से शब्बीर अंसारी के ‘आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाईजेशन’ जैसे संगठनों ने मुसलमानों के भीतर जाति विनाश के सामाजिक आंदोलनों को नयी गति दी.

ख़ास तौर पर अली अनवर की किताब मसावात की जंग (2001) और मसूद आलम फलाही की हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान (2007) ने मुस्लिम समाज के अन्दर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का विधिवत तरीक़े से पर्दाफाश किया. इन दोनों किताबों ने यह साबित किया कि इस्लामी संस्थानों/संगठनों (जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, इदार-ए-शरिया, इत्यादि), मुसलमानों के नाम पर चलने वाले सरकारी संस्थान (एएमयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउंडेशन, उर्दू अकादमी, इत्यादि) और शासन-प्रशासन पर अशराफ़ तबके के मुस्लिमों की अपनी आबादी से ज्यादा नुमाइंदगी है. इसके अतिरिक्त यह भी दर्शाया कि मुसलमानों में जातिगत भेदभाव रोटी-बेटी के रिश्तों में, कमज़ोर जातियों का उपहास उड़ाना, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होना, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए बाध्य करना, दलित मुसलमानों के साथ छुआछूत के प्रचलन, इत्यादि में नज़र आता है.

आज दलित, पिछड़े और आदिवासी मुस्लिम समूह – कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फ़कीर (अलवी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवारी), लोहार-बढ़ई (सैफ़ी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन्गुज्जर, इत्यादि— ‘पसमांदा’ पहचान के साथ संगठित हो रहे हैं. पसमांदा का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया.