कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण

लखनऊ ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ (AIPMM) कर्नाटक सरकार द्वारा ओबीसी मुस्लिम समुदाय (जिन्हें पसमांदा मुस्लिम भी कहा जाता है) के लिए प्रस्तावित आरक्षण का पूर्ण समर्थन करता है। संगठन इसे भारतीय संविधान के अनुरूप, सामाजिक न्याय पर आधारित और ऐतिहासिक रूप से उचित मानता है। यह आरक्षण धार्मिक भेदभाव या तुष्टिकरण का परिणाम नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (OBC) को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने की दिशा में एक कदम है। दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी (BJP) इसका कड़ा विरोध कर रही है और इसे “असंवैधानिक” व “धार्मिक आधार पर आरक्षण” करार दे रही है। इस लेख में हम इस मुद्दे की संवैधानिकता, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, बीजेपी के विरोध, अनुच्छेद 341 के संदर्भ में मुस्लिम समुदाय की स्थिति, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसमांदा विमर्श के संकल्प के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करेंगे।
कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण की संवैधानिकता
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में प्रावधान है कि राज्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान कर उनके उत्थान के लिए विशेष व्यवस्था कर सकता है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 15(4) और 16(4) सरकार को पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण और विशेष प्रावधान लागू करने की शक्ति प्रदान करते हैं। कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण इन्हीं प्रावधानों पर आधारित है। यह आरक्षण संपूर्ण मुस्लिम समुदाय के लिए नहीं, बल्कि केवल उन मुस्लिम जातियों (जैसे धुनिया, मोमिन, रंगरेज, कुरैशी, मनिहार, सलमानी, कसाई आदि) के लिए है, जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी हैं और ओबीसी श्रेणी में शामिल हैं।
संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण को प्रतिबंधित करता है, लेकिन सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर किसी समुदाय या जाति को ओबीसी में शामिल करना असंवैधानिक नहीं है। देश के विभिन्न राज्यों में हिंदू, सिख, ईसाई और मुस्लिम समुदायों की कई जातियां ओबीसी सूची में शामिल हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है। कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण भी इसी ढांचे का हिस्सा है। इसे “धार्मिक आधार पर आरक्षण” कहना तथ्यात्मक रूप से गलत और भ्रामक है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण की यात्रा
कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण का इतिहास कई दशकों पुराना है। इसे तीन प्रमुख चरणों में देखा जा सकता है:
1. 2023 से पहले: पुरानी आरक्षण व्यवस्था – कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम जातियों को कैटेगरी 2B के तहत 4% आरक्षण प्राप्त था। – यह आरक्षण केवल पसमांदा मुस्लिम समुदाय के लिए था, जिसमें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियां शामिल थीं। अशराफ मुसलमान (जैसे सैयद, शेख, पठान, मुगल आदि) इस श्रेणी में शामिल नहीं थे, क्योंकि वे सामाजिक रूप से पिछड़े नहीं माने जाते। – यह व्यवस्था दशकों से चली आ रही थी और इसे सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर लागू किया गया था।
2. मार्च 2023: बीजेपी सरकार का निर्णय-– मार्च 2023 में तत्कालीन बीजेपी सरकार ने ओबीसी मुस्लिम समुदाय के 4% आरक्षण को समाप्त कर दिया। – इस कोटे को खत्म कर इन समुदायों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए निर्धारित 10% कोटे में शामिल कर दिया गया।  इस बदलाव से ओबीसी मुस्लिम समुदाय को सामान्य वर्ग के अन्य गरीब समुदायों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी, जिससे उनके अवसरों में कमी आई। इस निर्णय की व्यापक आलोचना हुई और इसे सामाजिक न्याय के खिलाफ माना गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर सवाल उठाए और इसे लागू करने पर रोक लगा दी थी।
3. मई 2023 और उसके बाद: कांग्रेस सरकार का रुख- मई 2023 में कर्नाटक में कांग्रेस सरकार सत्ता में आई। इसने अपने चुनावी वादों में ओबीसी मुस्लिम समुदाय के लिए 4% आरक्षण को पुनर्जनन करने की बात कही थी। – मार्च 2025 तक, कांग्रेस सरकार ने सरकारी ठेकों में मुस्लिमों के लिए 4% आरक्षण का प्रस्ताव पेश किया, जिसे ओबीसी ढांचे के तहत लागू करने की योजना है।- हालांकि, इस प्रस्ताव को अभी अंतिम रूप नहीं दिया गया है, लेकिन इसे लेकर राजनीतिक विवाद तेज हो गया है।
अनुच्छेद 341 और मुस्लिम समुदाय की स्थिति- अनुच्छेद 341 के तहत, राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह अनुसूचित जातियों (SC) की सूची तैयार करें और संशोधन करें। 10 सितंबर 1950 को राष्ट्रपति द्वारा जारी एक आदेश के पैरा 3 के आधार पर, मुस्लिम और ईसाई समुदायों को SC आरक्षण से वंचित कर दिया गया। इस आदेश में शुरू में केवल हिंदुओं को SC आरक्षण का लाभ देने का प्रावधान था। बाद में 1956 और 1990 में इसमें संशोधन कर सिख और बौद्ध समुदायों को शामिल किया गया, लेकिन मुस्लिम और ईसाई समुदाय आज भी इससे बाहर हैं। यह प्रावधान एक विरोधाभास को जन्म देता है। एक ओर, संविधान धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है (अनुच्छेद 15), लेकिन दूसरी ओर, अनुच्छेद 341 के तहत SC आरक्षण में धार्मिक आधार पर मुस्लिम और ईसाई समुदायों को बाहर रखा गया है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या यह नीति संवैधानिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती? कई विशेषज्ञों और संगठनों ने इस भेदभाव को खत्म करने की मांग की है, लेकिन अभी तक इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण इस संदर्भ में एक सकारात्मक पहल है, जो धार्मिक आधार पर भेदभाव को ठीक करने की बजाय सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को आधार बनाता है।
बीजेपी का विरोध: आधार और विश्लेषण- बीजेपी ने कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण के प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया है। इसके प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:
1. धार्मिक आधार का आरोप: बीजेपी का दावा है कि यह आरक्षण “धर्म के आधार” पर दिया जा रहा है, जो संविधान के खिलाफ है।
2. असंवैधानिक कदम: पार्टी इसे “असंवैधानिक दुस्साहस” कहती है और इसे अदालत में चुनौती देने की बात कर रही है।
3. राजनीतिक विरोध: बीजेपी ने विधानसभा के अंदर और बाहर राज्यव्यापी प्रदर्शन की घोषणा की है, इसे कांग्रेस की “तुष्टिकरण नीति” करार देते हुए।
बीजेपी के विरोध का विश्लेषण– तथ्यात्मक गलती: बीजेपी का यह दावा कि आरक्षण “धार्मिक आधार” पर है, गलत है। यह आरक्षण केवल ओबीसी मुस्लिम जातियों के लिए है, जो सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर चुनी गई हैं, न कि पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए। – संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 340, 15(4) और 16(4) स्पष्ट रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की अनुमति देते हैं। हिंदू ओबीसी जातियों को भी इसी आधार पर आरक्षण मिलता है, तो मुस्लिम ओबीसी जातियों को इससे वंचित करना असमानता को बढ़ावा देगा।- राजनीतिक रणनीति और विरोधाभास: बीजेपी का विरोध संभवतः राजनीतिक लाभ और धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए है। यह विरोध तब और矛盾पूर्ण लगता है जब हम माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के पसमांदा विमर्श को देखते हैं। मोदी जी ने बार-बार पसमांदा मुस्लिम समाज को मुख्यधारा में लाने और उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान की बात की है। उन्होंने अपने भाषणों में “सबका साथ, सबका विकास” के संकल्प को दोहराते हुए पसमांदा मुस्लिमों के विकास पर जोर दिया है। लेकिन बीजेपी का कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण का विरोध इस संकल्प को धक्का पहुंचाता है। एक ओर जहां प्रधानमंत्री पसमांदा समाज को आगे बढ़ाने की बात करते हैं, वहीं उनकी पार्टी के नेता इसे “धार्मिक आधार” का दुष्प्रचार कर इसका विरोध कर रहे हैं। बीजेपी को इस विरोधाभास पर आत्ममंथन करना चाहिए।
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ की मांगें
1. आरक्षण की तत्काल बहाली: कर्नाटक सरकार से ओबीसी मुस्लिम समुदाय के लिए 4% आरक्षण को जल्द से जल्द पुनः लागू करने की मांग।
2. बीजेपी से विरोध बंद करने की अपील: बीजेपी को “भ्रामक और अनावश्यक” विरोध बंद करने और संवैधानिक नीति को स्वीकार करने के लिए कहा गया है। साथ ही, संगठन ने बीजेपी से अपील की है कि वह प्रधानमंत्री मोदी के पसमांदा विमर्श के संकल्प को कमजोर न करे।
3. पसमांदा मुस्लिमों के विकास के लिए नीति: सभी राजनीतिक दलों से पसमांदा मुस्लिमों के सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक विकास के लिए ठोस कदम उठाने की मांग।
4. अनुच्छेद 341 में संशोधन: मुस्लिम और ईसाई समुदायों को SC आरक्षण से बाहर रखने वाली नीति को समाप्त करने की मांग, ताकि संवैधानिक समानता सुनिश्चित हो सके।
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ का दावा सही प्रतीत होता है कि कर्नाटक में ओबीसी मुस्लिम आरक्षण संवैधानिक रूप से वैध है। यह आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन पर आधारित है, जो संविधान के अनुच्छेद 340, 15(4) और 16(4) के अनुरूप है। बीजेपी का विरोध तथ्यों पर कम और राजनीतिक लाभ पर अधिक केंद्रित लगता है। यह सच है कि यह आरक्षण केवल पसमांदा मुस्लिम समुदाय के लिए है, न कि संपूर्ण मुस्लिम समुदाय के लिए, जैसा कि बीजेपी द्वारा दुष्प्रचार किया जा रहा है।
अनुच्छेद 341 के तहत मुस्लिम समुदाय को SC आरक्षण से वंचित करना एक ऐतिहासिक भेदभाव का उदाहरण है, जिसे ठीक करने की आवश्यकता है। कर्नाटक का ओबीसी आरक्षण इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है, जो धार्मिक आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देने के बजाय सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देता है। इसके साथ ही, बीजेपी को यह समझना चाहिए कि उनका यह विरोध न केवल संवैधानिक ढांचे के खिलाफ है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसमांदा मुस्लिम समाज को आगे बढ़ाने के संकल्प को भी कमजोर करता है। यह एक ऐसा अवसर है जहां सामाजिक न्याय और “सबका साथ, सबका विकास” की भावना को मजबूत किया जा सकता है, न कि विवाद और ध्रुवीकरण का कारण बनाया जाए।
AIPMM सरकार से मांग करता है कि इस आरक्षण को शीघ्र लागू किया जाए ताकि ओबीसी मुस्लिम समुदाय को उनका संवैधानिक हक मिल सके। यह मुद्दा न केवल कर्नाटक, बल्कि पूरे देश में सामाजिक न्याय और समानता की बहस को नई दिशा दे सकता है।
मुहम्मद युनुस
चीफ एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर