मुसलमानों को क्यों उत्तराखंड यूसीसी पर बहस करनी चाहिए ?

अरशद आलम

उत्तराखंड में हाल में लागू हुए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लेकर मुसलमानों में काफी संशय है.कुछ हद तक यह समझ में भी आता है,क्योंकि यह फैसला उस वक़्त आ रहा है जब उत्तराखंड की पुलिस कार्रवाई में कम से कम चार मुस्लिम मारे गए. इस तरह की और घटनाएं देश में कहीं न कहीं देखने को मिल जाती हैं जिससे मुसलमानों का आतंकित होना स्वाभाविक ही है.

लोकतांत्रिक विश्वास के साथ, इस तरह की घटनाएं मुस्लिम समाज में अविश्वास पैदा करती हैं जिसके परिणामस्वरूप यह स्वाभाविक है कि मुसलमान उत्तराखंड में लागू वर्तमान यूसीसी को बहुत संदेह की दृष्टि से देखेंगे ही.

आज मुसलमानों को चारों ओर से घेरने वाली निराशा के बावजूद, उन्हें कम से कम उत्तराखंड राज्य के यूसीसी कानून पर बहस करनी चाहिए, ताकि इसके सकारात्मक पहलुओं पर चर्चा हो सके.

यह अपेक्षित है.जमीयत उलेमा ए हिंद जैसे रूढ़िवादी संगठन यूसीसी को शरिया विरोधी और मुसलमानों की धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ कहकर खारिज कर देंगे.लेकिन कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस मुद्दे पर उदारवादी और प्रगतिशील मुसलमानों की चुप्पी हैरान करने वाली है.

उनकी चुप्पी केवल दक्षिणपंथी दावे को विश्वसनीयता प्रदान करती है कि जब धार्मिक मुद्दों की बात आती है तो सभी मुसलमान एक जैसा सोचते हैं; जिससे समुदाय के भीतर रूढ़िवाद और असहमति( प्रगतिशीलता) के बीच की सीमा मिट जाती है( मुस्लिम समाज के प्रगतिशील भी रूढ़िवादियों की तरह सोचने लगते हैं).

इसका मतलब यह नहीं है कि यूसीसी अपने मौजूदा स्वरूप में आलोचना से परे है.दरअसल, इसका सबसे कठोर प्रावधान लिव-इन रिलेशनशिप को पंजीकृत करने का निर्देश है जो सीधे तौर पर निजता के अधिकार का हनन है.

जैसा कि अन्य बुद्धिजीवियों ने भी बताया है. इस प्रावधान से पुलिस द्वारा युवा जोड़ों का उत्पीड़न हो सकता है.हालाँकि यह सभी धार्मिक समुदायों, विशेषकर युवाओं के लिए चिंता का विषय है.इस लेख में मैं केवल उन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं जो मुस्लिम समुदाय को प्रभावित करेंगे.

यूसीसी के जो प्रावधान मुसलमानों पर सीधे असर डालेंगे उनमें संपत्ति के अधिकार, विरासत, तलाक, बाल विवाह, बहुविवाह और हलाला शामिल हैं.आइए देखें कि इन प्रथाओं में बदलाव से मुसलमानों पर विशेष रूप से क्या प्रभाव पड़ेगा.

संपत्ति का अधिकार :

यूसीसी माता-पिता के साथ-साथ पैतृक संपत्ति में पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार देता है.शरिया के मुताबिक महिलाएं पुरुषों से आधा हिस्सा पाने की ही हकदार हैं.

विरासत :

मुस्लिम पति-पत्नी, बेटे और बेटियां अब मृत माता-पिता की संपत्ति में बराबर उत्तराधिकारी हैं.शरिया कानून के अनुसार, एक मुसलमान अपनी संपत्ति का केवल एक-तिहाई हिस्सा ही वसीयत कर सकता है जिसे वह चाहता हो.यूसीसी के अनुसार, ऐसी कोई सीमा नहीं है और माता-पिता वसीयत करके बच्चों को संपत्ति देने के लिए स्वतंत्र हैं.(विशेषत: अपनी बेटियों को)

तलाक :

शरिया के मुताबिक तलाक का अधिकार सिर्फ पतियों को है.महिलाएँ जो अधिक से अधिक कार्य कर सकती हैं वह है ‘खुला’ माँगना, जिसे पति द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है.यूसीसी महिलाओं को अदालतों तक पहुंच कर तलाक की कार्यवाही शुरू करने का अधिकार देता है. यह अधिकार दशकों से अन्य धार्मिक समुदायों की महिलाओं के लिए उपलब्ध है.

बाल विवाह, बहुविवाह और हलाला :

यूसीसी ने इन प्राचीन कुप्रथाओं को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया है.दूसरी ओर, शरिया ने इन सभी प्रथाओं के लिए धार्मिक औचित्य प्रदान कर रखा है.शरिया बाल विवाह को इस्लामी मानती है क्योंकि एक मान्यता है कि स्वयं पैगंबर( स० अ० व०) ने बाल विवाह किया था.

इस प्रकार यह प्रथा वैध बन जाती है.शरिया को मानने वालों का दृष्टिकोण  POCSO अधिनियम के विपरीत है, जो 18वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध को वैधानिक दृष्टि से बलात्कार मानता है.

यूसीसी ने लड़कियों और लड़कों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18और 21वर्ष कर दी है, जिससे बाल विवाह अवैध हो गया है.इस बात पर सांख्यिकीय बहस करना बेकार है कि किस समुदाय में सबसे अधिक बाल विवाह होते हैं.तथ्य यह है कि बाल विवाह मुस्लिम समुदाय में भी मौजूद है.इसका बच्चे के शरीर और उसके मनोविज्ञान पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है.

इसी तरह, बहुविवाह और हलाला को उत्तराखंड यूसीसी के तहत गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है.हालाँकि यह ज्ञात रहे कि मुसलमानों की तुलना में हिंदुओं में अधिक बहुविवाह होते हैं, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे संबंधों का मुस्लिम महिलाओं पर क्या मनोविज्ञानिक प्रभाव पड़ता है.

इसलिए बहुविवाह उन्मूलन का स्वागत सबसे पहले स्वयं महिलाओं को ही करना चाहिए.यूसीसी निकाह हलाला की कुप्रथा को खत्म करता है, जहां एक महिला को तलाक़ होने की स्थिति में पहले पति के पास लौटने के लिए पहले किसी अन्य पुरुष से शादी करनी होती है और सम्बन्ध बनाना होता है.

इस तरह की अपमानजनक प्रथा को गैरकानूनी घोषित किए जाने का सभी मुसलमानों को स्वागत करना चाहिए.मुस्लामनों के शासन के पतन विषयक इतिहास के विशेषज्ञ इतिहासकार तैमूर कुरान, औकाफ (सं. वक्फ)  हमें बताते हैं कि कैसे यह संस्था मुसलमानों की मदद करने के बजाय, उनके गले की हड्डी बन गई.

उनकी थीसिस, द लॉन्ग डाइवर्जेंस : हाउ इस्लामिक लॉ हेल्ड बैक द मिडिल ईस्ट , यह बताती है कि आधुनिक कानून के बिना प्रगति और विकास संभव नहीं है.इसी तरह से, उत्तराखंड राज्य का यूसीसी कानून  हमें कम से कम उन बिंदुओं पर बहस करने का अवसर देता है जो मुस्लिम समाज के लिए परिवर्तनकारी बन सकते हैं.यूसीसी को संपूर्ण रूप से अस्वीकृति कर देना निश्चित रूप से अनुचित है.

कोई भी समझदार व्यक्ति और समाज यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि वह महिलाओं के खिलाफ कानूनी भेदभाव को समर्थन करता है ? असमान संपत्ति के अधिकार, तलाक का कोई अधिकार न होना, हलाला की शोषणात्मक व्यवस्था, मुस्लिमों को ‘अन्य’ में बदल दिया है.

शरिया के ऐसे नियम राष्ट्र के एकीकरण को बाधित करते हैं लेकिन ज़्यादा गंभीर बात यह है कि यह मुस्लिम आबादी के आधे भाग (महिलाओं)को मानव गरिमा और स्वतंत्रता से वंचित कर देता है.

निश्चित रूप से, यह कानून भाजपा शासित राज्य में आया है, जिसका मुसलमानों के खिलाफ रिपोर्ट कार्ड बहुत निराशाजनक है.प्रतिभाव अनिल ने अपनी पुस्तक, अनदर इंडिया में दिखाया है कि अन्य राजनीतिक दलों के बारे में भी यही कहा जा सकता है.

(उनका मुसलमानों के खिलाफ रिपोर्ट कार्ड बहुत  निराशाजनक है) इसलिए, मुसलमानों को यह चुनना होगा कि उन्हें इन कानूनों से क्या लाभ होगा, चाहे संबंधित राजनीतिक व्यवस्था कुछ भी हो.

यदि मुसलमान भाजपा द्वारा यूसीसी लागू करने के इतने खिलाफ हैं, तो उन्हें अपने व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करने से किसने रोका है ? रूढ़िवादियों ने लंबे समय से यह तर्क दिया है कि शरिया में सुधार नहीं किया जा सकता.शरिया कुरान और हदीस से निकला है.

अर्थात यह दैवीय कानून है. यह एक बेहद भ्रांतिपूर्ण तर्क है.सभी विधि विद्या सांस्कृतिक विचारों से निकलती है, न कि भगवान द्वारा भेजी गई हो.यदि मुस्लिम न्यायविदों ने सैकड़ों साल पहले इस्लामी संहिता की एक विशेष तरीके से व्याख्या की थी, तो अब उनकी दोबारा व्याख्या करने में कुछ भी गलत नहीं है.

आख़िरकार, मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में ऐसे कोडों को समय-समय पर संशोधित किया जाता रहा है.एकमात्र देश जो अभी भी मध्ययुगीन शरिया पर काम करते हैं, वे शायद भारत और अफगानिस्तान हैं.

यह भारतीय मुसलमानों के बारे में बहुत कुछ कहता है जिन्होंने दशकों से लोकतंत्र में रहने के बावजूद इसकी भावना को आत्मसात नहीं किया है.उन्हें लोकतंत्र और संविधान की याद तभी आती है जब उनकी रूढ़िवादिता को खतरा होता है.

कुछ विश्लेषकों का कहना है कि आदिवासी समुदायों को इसके दायरे से बाहर छोड़कर, यूसीसी विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को लक्षित करने के लिए बनाया गया है.लेकिन जनजातियों को यूसीसी से बाहर रखने के कई कारण हैं.

अगर जनजातियों को भी यूसीसी में शामिल कर लिया जाए तो जनजातीय परंपराओं की खासियत खत्म होने लगेगी और उनकी परंपराओं और रीतिरिवाजों का ना तो ग्रामीण समाज और न ही शहरी समाज पर प्रभाव पड़ता है.इसके अलावा, जैसा कि रामचंद्र गुहा अपने निबंध, आदिवासी, नक्सली और भारतीय लोकतंत्र में बताते हैं , आदिवासी समुदाय आम तौर पर अपनी महिलाओं के साथ हिंदू या मुस्लिम समाज की तुलना में बहुत बेहतर व्यवहार करते हैं.

इसके अलावा, ये विश्लेषक भूल जाते हैं कि जनजाति एक धर्म तटस्थ श्रेणी है जिसका अर्थ है कि मुस्लिम जनजातियों को भी यूसीसी के प्रावधानों से छूट प्राप्त है.इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि यूसीसी क्यों ज़रूरी है?

यूसीसी विशेष रूप से गहरे लिंग भेदभाव की स्थितियों में प्रासंगिक है.जैसा कि उपरोक्त चर्चा से पता चलता है, मुस्लिम समाज कानूनी रूप से महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करता है और इसलिए, यूसीसी की आवश्यकता है.

आप निश्चित रूप से यह तर्क दे सकते हैंकि ऐसे उपाय थोपे नहीं जाने चाहिए,बल्कि ये जैविक विकास का परिणाम होने चाहिए.वामपंथी दशकों से यह तर्क दे रहे हैं लेकिन उन्हें मुस्लिम समुदाय के भीतर आंतरिक सत्ता संरचना का कोई अंदाज़ा नहीं है.

यदि भारत में सुधार होना होता, तो यह बहुत पहले ही हो गया होता, जब बहुत सारे मुस्लिम देश अपने व्यक्तिगत कानूनों में सुधार कर रहे थे.सच यह है कि रूढ़िवादी नेतृत्व हमेशा सुधार की किसी भी बात को धार्मिक स्वतंत्रता पर हमले के रूप में लेता है.

इसका मतलब है कि उन्हें व्यक्तिगत कानून में सुधार करने में कोई दिलचस्पी नहीं है.वास्तव में, यह धार्मिक शुद्धतावाद ही है जो उन्हें यह देखने से रोकता है कि यह एकदम सही कदम है.हमारे आसपास का समाज कितना बदल गया है पर हमारे रूढ़िवादी सत्ताधारी बदलना नहीं चाहते.इस प्रकार, मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार का एकमात्र तरीका सुधार को थोपना ही प्रतीत होता है,यूसीसी वही सुधार कर रहा है.