डॉ. फैयाज अहमद फैजी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को अलीगढ़ में एक चुनावी रैली के दौरान कहा कि जब मैं पसमांदा मुसलमानों की परेशानियों के बारे में बात करता हूं, तो उनके (कांग्रेस और समाजवादी पार्टी) रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मुस्लिम समाज के अभिजात वर्ग के लोगों ने सभी लाभ छीन लिए हैं और उन्होंने (कांग्रेस और सपा) पसमांदा मुसलमानों को उसी स्थिति में रहने के लिए मजबूर कर दिया है. प्रधानमंत्री मोदी जी ने दोनों पार्टियों पर अल्पसंख्यक समुदाय के बहुसंख्यक वर्ग पसमांदा मुसलमानों की दुर्दशा को नजरअंदाज करने का गंभीर आरोप लगाया.
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मजहबी पहचान के नाम पर देशज पसमांदा समाज का झोला भर-भर के वोट लेने वाली तथाकथित सामाजिक न्याय और सेक्युलर लिबरल पार्टियां, मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय से मुंह चुराती रहीं है और जब देश की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे बड़ा नेतृत्व इस मुद्दे की वकालत करता है, तो बजाय इस उचित मुद्दे पर बात करने के, वो सिरे से इसे नकारते हुए आरोप लगाते हैं कि यह मुस्लिम समाज को बांटने का प्रयास है. जाहिर सी बात है ये पार्टियां मजहबी सांप्रदायिक आधार पर पूरे देशज पसमांदा समाज का वोट लेने की परंपरा को बनाए बचाए रखना चाहती है, ताकि उनका सत्ता प्राप्ति का उनका स्वार्थ सिद्ध होता रहे. क्योंकि इस आधार पर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात करना उनके हितों के अनुरूप नहीं है.
अब देखना यह है कि क्या लोक सभा चुनाव के बाकी बचे चरणों में भाजपा के रणनीतिकार पसमांदा वोटरों को अपने पाले में करने के लिए कितना प्रयास करेंगे और पसमांदा मुसलमान भाजपा की ओर कितना जायेगा. चुनाव से पहले प्रधानमंत्री की पसमांदा नीति के प्रत्युत्तर में कांग्रेस पार्टी ने भी पसमांदा समाज के एक बड़े हिस्से बुनकरों को अपने पाले में करने के लिए पूरे देश में बुनकर संवाद की नीति जरूर बनाई थी, लेकिन उसका क्रियान्वयन बहुत कुछ दृष्टिगोचर नहीं हुआ है.
राजनीतिक रणनीतिकार यह समझ रहें हैं कि देशज पसमांदा, जो कुल मुस्लिम जनसंख्या का लगभग 90 फीसद है, इस चुनाव पर निर्णायक असर डाल सकता है. मोदी जी ने जब से पसमांदा को जोड़ने की बात किया है. तभी से विपक्षी पार्टियों को यह भय सता रहा है कि कहीं पसमांदा समाज का थोड़ा बहुत भी हिस्सा भाजपा की ओर गया, तो यह उनके लिए घातक हो सकता है. इसलिए विपक्ष ने पहले से इस मुद्दे को बेअसर करने का प्रयास करते हुए यह कहा कि भाजपा मुस्लिम समाज को बांटना चाहती है, लेकिन मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात को मुस्लिम समाज का बंटवारा कहकर इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है, क्योंकि यही सामाजिक न्याय हिन्दू समाज के लिए एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा है, तो फिर मुस्लिम समाज में इसका इनकार कैसे किया जा सकता है? लिहाजा विपक्ष का यह तर्क बहुत नहीं चल पाया और उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव ने बहुत हद तक इसे गलत साबित कर दिया.
लोक सभा की दृष्टि से देखा जाए, तो उत्तर प्रदेश बहुत महत्वपूर्ण राज्य है. अब तक यह देखा गया है कि जिसने यूपी जीत लिया, उसने केंद्र भी जीत लिया. और शायद यही बड़ी वजह जान पड़ती है कि प्रधानमंत्री ने पसमांदा संबंधित व्यतव्य के लिए उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ को चुना.
इससे पहले भाजपा ने पसमांदा प्रयोग के लिए उत्तर प्रदेश को प्रयोगशाला के रूप में चुना था और विधान सभा चुनाव 2022 से पहले अल्पसंख्यक आयोग, मदरसा बोर्ड और उर्दू अकादमी के अध्यक्ष पदों पर पहली बार पसमांदा समाज के लोगों को आसीन किया गया, जहां अब तक पारंपरिक रूप से मुस्लिम समाज का संभ्रांत शासक वर्गीय अशराफ वर्ग ही काबिज होता आया था. लोक कल्याणकारी स्कीमों और हुनर हाट के जरिए पसमांदा समाज को जोड़ने का प्रयास किया गया.
यूपी विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा के शीर्ष नेताओं ने मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात करते हुए मुस्लिम समाज के वंचितों के उत्थान की बात की गई. हालांकि भाजपा के पक्ष में केवल 8 फभ्सद वोट ही मुसलमानों का गया, जिसमें अधिकांश भाग पसमांदा का था.
लेकिन महत्त्वपूर्ण यह था कि यह प्रतिशत पिछले विधान सभा के तुलना में लगभग दोगना था. जिसका आंशिक रूप से ही सही चुनाव पर प्रभाव पड़ा और ऐसा अनुमान लगाया गया कि लगभग 70-80 सीटों पर जहां बहुत ही कम वोटों से हार जीत हुई, वहां भाजपा के पक्ष में ये वोट निर्णायक साबित हुए होंगे.
और शायद यही एक बड़ी वजह थी कि इतिहास में पहली बार भाजपा ने सैयद समाज को मंत्रालय देने की अपनी परम्परा को तोड़ते हुए पसमांदा समाज से आने वाले अपने एक साधारण कार्यकर्ता को मंत्री पद से सुशोभित किया.
उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में पसमांदा नीति को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने लगभग 394 टिकट (निकाय सदस्य और निकाय अध्यक्ष हेतु) मुस्लिम समाज को दिए जिसमें अधिकांश पसमांदा समाज से थे. जिसमें लगभग 37 के आस-पास अध्यक्ष पद के लिए और 350 के आस पास सदस्य पद के लिए थे, जिसमें पसमांदा समाज की तीन महिलाओं समेत कुल 5 अध्यक्ष पद के प्रत्याशी विजयी हुए. सदस्य पद के लिए लगभग 55 प्रत्याशी विजेता घोषित हुए. भाजपा के नेतृत्व में पसमांदा महिलाओं का चुनाव जीतना भी एक नए युग की शुरुवात की ओर इशारा करता है. नगर निगम में महापौर के लिए किसी भी सीट पर भाजपा ने पसमांदा प्रत्याशी नहीं दिया था फिर भी सभी सीटें भाजपा के पक्ष में गईं, विशेष रूप से पसमांदा बहुल क्षेत्रों में. निःसंदेह इसमें पसमांदा वोटरों ने एक बड़ी भूमिका निभाई होगी.
हालांकि अभी भी भाजपा इस मामले में सपा और बसपा से पीछे है, जहां पसमांदा समाज के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी क्रमशः 16 और 11 की संख्या में विजयी हुए, लेकिन यह भी देखने वाली बात है कि भाजपा, कांग्रेस और एआईएमआईएम जिसके क्रमशः 3 और 2 ही पसमांदा समाज के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी जीत दर्ज कर सके, से आगे रही.
पसमांदा समाज को भाजपा से जोड़ने की नीति के शुरूआत में यह एक अच्छा परिणाम माना जा सकता है, विशेष रूप से एक ऐसे समाज से जोड़ना, जो अब तक भाजपा को अछूत मानकर चुनाव के दौरान उसे वोट देने की बात करना तो दूर, सोचता तक नहीं था. ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा आगरा की जनसभा में पुनः पसमांदा के दुःख-दर्द की बात करना निश्चय ही पसमांदा वोटरों को पुनर्विचार करने पर मजबूर करेगा.
यदि भारतीय जनता पार्टी ने मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का मुद्दा, लोक कल्याणकारी स्कीमों, देश हित में किए गये उसके कार्यों को लेकर चुनाव में जाती है, तो निश्चय ही देशज पसमांदा का झुकाव बीजेपी की तरफ बढ़ सकता है और यह झुकाव उत्तर प्रदेश विधान सभा 2022 के चुनाव में प्राप्त लगभग 8 फीसद से 9 फीसद वोटों में इजाफा करते हुए लगभग 15 फीसद से 16 फीसद के आस7पास हो सकता है.
चुनाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन यह चुनाव भारतीय मूल के मुसलमानों की उनके मजहबी पहचान से अलग समाजिक आर्थिक पहचान ‘देसज पसमांदा’ को स्थापित करने वाले चुनाव के रूप में इतिहास में जरूर याद रखा जायेगा.