भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज की विविधता और पसमांदा विमर्श

भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज केवल धार्मिक इकाई नहीं, बल्कि एक गहराई से विविध, जटिल और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से बहुआयामी समुदाय है। इसकी संरचना में ऐतिहासिक घटनाएं, धर्मांतरण की प्रक्रिया, क्षेत्रीय संस्कृतियां, जातिगत व्यवस्थाएं, धार्मिक मसलक और राजनीतिक कारक गहराई से जुड़े हैं। विशेष रूप से, समाज के भीतर अशरफ (सामाजिक रूप से प्रभुत्वशाली) और पसमांदा (हाशिए पर स्थित बहुसंख्यक) वर्गों की अंतर्विरोधी गतिकी ने इसकी जटिलता को और अधिक स्पष्ट किया है।

1. मुस्लिम समाज की विविधता: कारण और स्वरूप

(क) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और इस्लाम का प्रसार

इस्लाम का आगमन उपमहाद्वीप में सातवीं शताब्दी में व्यापारियों, सूफियों और बाद में तुर्क-मुग़ल आक्रमणों के माध्यम से हुआ।

पश्चिमी तट (केरल): अरब व्यापारियों ने इस्लाम को स्थानीय मलयाली समाज में बिना संघर्ष के प्रसारित किया।

उत्तर भारत और सिंध: सैन्य जीत के माध्यम से इस्लाम का प्रवेश हुआ, जो धीरे-धीरे स्थानीय समाज में रच-बस गया।

बंगाल और बिहार: यहां निम्नवर्गीय और दलित समूहों ने सूफी परंपरा से प्रभावित होकर इस्लाम अपनाया, जिसे वे समानता और इज़्ज़त की ओर कदम मानते थे।

हालांकि इस्लाम ने धर्मांतरण के बाद उन्हें धार्मिक समानता दी, लेकिन सामाजिक समता भारतीय जातिगत ढांचे की वजह से पूरी तरह नहीं मिल सकी।

(ख) जातिगत संरचना का प्रभाव

भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी आदर्शों के बावजूद जातिगत मानसिकता सामाजिक जीवन में बनी रही। इसने मुस्लिम समाज को भी तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित कर दिया:

1. अशरफ़ – विदेशी मूल (अरब, ईरान, तुर्क, अफ़गान) से आने वाले या अपने को उनसे जोड़ने वाले लोग।

2. अजलाफ़ – स्थानीय धर्मांतरित मुस्लिम, जिनका मुख्य पेशा हस्तशिल्प, बुनकारी, लोहारगिरी आदि रहा।

3. अरज़ाल – पूर्व अछूत वर्ग, जिन्हें सामाजिक रूप से सबसे निचला स्थान प्राप्त हुआ।

इन दो वर्गों (अजलाफ़ + अरज़ाल) को मिलाकर ‘पसमांदा’ कहा गया, जो मुस्लिम समाज की लगभग 85% आबादी हैं।

(ग) धार्मिक मसलक और विचारधारात्मक विविधता

मुस्लिम समाज केवल जातियों में ही नहीं, धार्मिक विचारों में भी विभाजित है:

सुन्नी और शिया: वंशवाद और राजनीतिक मतभेद से उत्पन्न।

देवबंदी, बरेलवी, अहल-ए-हदीस, जाफरी, बोहरा, आगाखानी: धार्मिक पद्धतियों, मज़हबी नेतृत्व और सूफी-इस्लामी परंपराओं की विविधता का प्रतिबिंब।

धार्मिक मतभेदों ने न केवल पूजापद्धति में विविधता लाई, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई भी पैदा की।

(घ) क्षेत्रीय और भाषाई विविधता

भारतीय मुस्लिम समाज की क्षेत्रीय पहचानें अत्यंत विविध हैं:

केरल के माप्पिला मुस्लिम मलयालम और अरबी प्रभाव के तहत हैं।

बंगाल के मुसलमान फकीरी और सूफी परंपराओं से प्रभावित हैं।

उत्तर भारत में अंसारी, कुंजड़ा, कुरैशी, सलमानी आदि जातियां क्षेत्रीय परंपराओं के साथ अपनी सामाजिक पहचान बनाए हुए हैं।

2. अशरफ प्रभुत्व और पसमांदा समाज पर उसका प्रभाव

(क) सांस्कृतिक वर्चस्व

अशरफ वर्ग ने अपनी ‘विदेशी’ वंशावली और इस्लामी विद्वता के आधार पर ‘खालिस मुसलमान’ होने का दावा किया, जबकि पसमांदा वर्ग की लोक संस्कृति, बोलियाँ, पहनावा और खानपान को हेय दृष्टि से देखा गया।

(ख) शिक्षा और धार्मिक संस्थानों में प्रभुत्व

जैसे: दारुल उलूम देवबंद,अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU),जामिया मिल्लिया इस्लामिया,मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, इमारत ए शरिया ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, गाज़ी मियां आदि

इन संस्थाओं में दशकों तक केवल अशरफ वर्ग का नेतृत्व बना रहा, जिससे पसमांदा वर्ग शिक्षा, धार्मिक नेतृत्व और नीति-निर्माण से बाहर रह गया।

(ग) ऐतिहासिक बहिष्करण

मुग़ल काल: पसमांदा समाज के लोग सैनिक या सेवा श्रेणियों में रहे, लेकिन सत्ता से दूर रहे।

औपनिवेशिक काल: मुस्लिम लीग और अलीगढ़ आंदोलन अशरफ वर्ग की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करते रहे।

आज़ादी के बाद: मुस्लिम नेतृत्व पसमांदा समाज की बात करने से कतराता रहा।

3. पसमांदा आंदोलन: पुनर्जागरण और संगठनात्मक विकास

(क) प्रारंभिक प्रयास

1980 के दशक में शब्बीर अंसारी ने महाराष्ट्र में ओबीसी मुस्लिमों के लिए संगठन बनाकर सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई शुरू की।

1990 के दशक में:

डॉ. एजाज़ अली ने “ऑल इंडिया यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा” की स्थापना किया था जिसको अब उन्होंने राजनितिक कारणों से ऑल इंडिया यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा बना दिया है

अली अनवर अंसारी ने “ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ (AIPMM)” का गठन किया।

इन संगठनों ने जातीय असमानता, आरक्षण और भागीदारी के मुद्दे को उठाया। हालांकि, दोनों नेताओं के बाद संगठन निष्क्रिय हो गया क्योंकि नेतृत्व जातीय हितों में उलझ गया।

(ख) पुनर्गठन की प्रक्रिया

कोविड काल (2020-21) में एडवोकेट परवेज़ हनीफ और मुहम्मद यूनुस , शरिक अदीब अंसारी, अख़्तर हुसैन मारूफ अंसारी, डॉक्टर फैय्याज अहमद फैजी, प्रोफेसर मसूद आलम फलाही,अब्दुल्लाह मंसूर आदि के नेतृत्व में AIPMM को पुनर्जीवित किया गया।

15 सितंबर 2021 को अलीगढ़ में इसे विधिवत रजिस्टर्ड किया गया।

आज यह संगठन 12 राज्यों में सक्रिय है और दिल्ली, लखनऊ, रांची और पटना में कार्यालय संचालित करता है।

AIPMM की विचारधारा: भारतीय संस्कृति को अपनाना, न कि उससे टकराना। सामाजिक भेदभाव इस्लाम का नहीं, जातीय व्यवस्था का परिणाम है। मदीना के संविधान (मीसाक-ए-मदीना), आख़िरी ख़ुत्बा, सुलह-ए-हुदैबिया आदि से प्रेरित सर्वधर्म समभाव की नीति।

4. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पसमांदा विमर्श

(क) राष्ट्रीय पहचान और स्वीकार्यता

2014 के बाद पसमांदा विमर्श को राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार केंद्रीय नेतृत्व से मान्यता मिली।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा:

> “हमारे मुसलमान भाइयों में जो गरीब हैं, जो पसमांदा हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाए बिना विकास संभव नहीं।”

(ख) योजनाएं और समावेशन

उज्ज्वला योजना – महिलाओं को गैस कनेक्शन

प्रधानमंत्री आवास योजना – शहरी-ग्रामीण गरीब मुसलमानों को मकान

आयुष्मान भारत – मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा

स्किल इंडिया – पसमांदा युवाओं के लिए प्रशिक्षण

NEP 2020 – मदरसों में आधुनिक शिक्षा का प्रवर्तन

(ग) राजनीतिक भागीदारी

पसमांदा समाज से व्यक्तियों को राज्यसभा, विधान परिषद, बोर्डों, आयोगों में नामित किया गया।

इसके बाद राहुल गांधी सहित विपक्षी नेताओं ने भी पसमांदा विमर्श को उठाया, जो एक सकारात्मक संकेत है।

5. चुनौतियां और आगे की दिशा

(क) आंतरिक विभाजन

जातीय संगठन (जैसे अंसारी, कुरैशी, मंसूरी, राइनी, मिरासी, बंजारा, लालबेगी आदि) आपसी सहयोग के बजाय प्रतिस्पर्धा में फंसे हैं।

धार्मिक मसलकी मतभेद अब भी सामाजिक एकता में बाधा बनते हैं।

(ख) राजनीतिक चेतना का निर्माण

पसमांदा समाज को वोटबैंक समझा गया है, नेतृत्व में भागीदारी अब भी सीमित है।

AIPMM जैसे संगठन इसे बदलने के लिए जागरूकता अभियान चला रहे हैं।

पसमांदा मुस्लिम अब केवल ‘वंचित’ या ‘पिछड़ा’ वर्ग नहीं, बल्कि भारतीय मुस्लिम समाज की परिवर्तनकारी शक्ति बन चुका है।

यह विमर्श सामाजिक न्याय, धार्मिक समावेशन, और भारतीय संविधान की आत्मा को जीवंत करता है।

आज आवश्यकता है कि अशरफ और पसमांदा के बीच संवाद स्थापित हो और मुसलमानों की आंतरिक विविधता को स्वीकार कर साझा भविष्य की ओर बढ़ा जाए।

पसमांदा विमर्श केवल मुस्लिम समाज का नहीं, भारत के समावेशी लोकतंत्र का सवाल है। पसमांदा चेतना का विस्तार, भारत के सामाजिक न्याय आंदोलन को नई दिशा और ऊर्जा देगा।

 

 

 

 

मुहम्मद युनुस
मुख्य कार्यकारी अधिकारी सीईओ
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़