मुसलमानों की जाति के सवाल पर छटपटाहट क्यों?


जब मुसलमानों में जाति का सवाल उठता है तो कई मुस्लिम विद्वान छटपटाहट के साथ कहते हैं कुरान में जात-पात कहाँ. पर यहाँ सवाल कुरान का नहीं उसकी व्याख्या का है. किसी भी किताब की व्याख्या कोई लेखक करता है और लेखक हमारे इसी समाज के होते हैं. लेखक की समाजी हैसियत का असर उसकी व्याख्या पर भी ज़रूर पड़ता है. जब मौलाना अशराफ अली थानवी बहिश्ती ज़ेवर में ‘कुफु’ के सिद्धान्त / उसूल को बयान करते हुए बताते हैं कि ऊंची बिरादरियों को नीची बिरादरियों के साथ विवाह के संबंध नहीं कायम करने चाहिए तो मौलाना और उनके मुरीदों को यह इस्लामी उसूल ही लग रहा था. कुरान में मसावात और बराबरी के नियम का बयान करने वाले उलेमा को इस बात का भी ज़िक्र करना चाहिए कि मुस्लिम मुल्कों में गुलामी प्रथा का खात्मा 1500 साल के इस्लाम के अस्तित्व के बाद भी पिछली सदी में ही क्यों मुमकिन हुआ? हर व्यवहारिक मसले के लिए हमारा पाला कुरान शरीफ से नहीं उसकी व्याख्या से पड़ता है. और अब तक यह बात साफ़ हो चुकी है कि कुरान की व्याख्या (तशरीह और तर्जुमा) भारत में कौन सा तबका करता है. बुनियादी तौर पर धर्म-ग्रंथों की व्याख्या का मामला भी राजनीतिक और सामाजिक होता है. इसलिए बाअसर तबकों द्वारा किये गए व्याख्याओं का जवाब भी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों के साथ ही दिया जायेगा.

इस के अलावा जिन लोगों को लगता है कि मुसलमानों में जाति व्यवस्था हिंदुओं के मुकाबले कमज़ोर है तो उनको यह ध्यान रखना चाहिए कि जाति व्यवस्था बुनियादी तौर पर ‘सामाजिक बहिष्करण’ के लिए अस्तित्व में आयी है. इस का रूप अवश्य क्षेत्रीय और धार्मिक तौर पर भिन्न हो सकता है परन्तु इसकी मार नहीं. आखिर कितने इलाके हैं भारत में जहाँ मनु स्मृति में वर्णित जाति व्यवस्था हूबहू मिलती है? क्या दक्षिण भारत में पाई जाने वाली व्यवस्था उत्तर भारत से भिन्न नहीं? क्या पश्चिमी बंगाल और उत्तर प्रदेश में यह समान रूप से काम करती है? इसलिए ज़रूरी सवाल है कि ये निजाम किन और कितने तबकों को कितने प्रभावशाली तरीके से सत्ता, ज्ञान और दौलत के दायरे से बाहर रखता है. जहाँ तक रूप का सवाल है तो यह मुसलमानों में रोटी-बेटी के रिश्तों, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होने, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए कहने, दलित मुसलमान तबकों के साथ कुछ इलाकों में छुआछूत के प्रचलन, अशरफिया जातियों द्वारा कुछ इलाकों में कमज़ोर जातियों की मस्जिदों को जलाने आदि में नज़र आता है. जहाँ तक मज़हबी तौर पर जायज़ होने का प्रश्न है तो मसूद फलाही की किताब हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान यहाँ के उलेमा और मौलवियों के जातिवादी चरित्र को साफ़ तौर पर नुमाया करती है.

पसमांदा आन्दोलन इस्लाम की अगड़े मुसलमानों द्वारा की गयी जातिवादी व्याख्या का खंडन करता है और इस्लामी मसावात के सन्देश को फैलाने के फ़र्ज़ को गले से लगाता है. इस्लाम मुसलमानों का नहीं सारी मानवता के लिए सन्देश है. असली मुसलमान वह नहीं जो तकदीर से मुसलमान के घर पैदा हो गया बल्कि वह है जो ज़ालिम और मजलूम के संघर्ष में मजलूम का साथ देता है. जहाँ तक मुसलमानों की एकता का सवाल है उसे पहले से ही अगड़े मुसलमानों ने कई मसलक (अहल-ए-हदीस, बरेलवी, देओबंदी, वहाबी, सूफी, शिया, इत्यादि) बना कर खतरे में डाल रखा है. अजीब बात है कि अगड़े मुसलमानों द्वारा संचालित ये सारे मसलक वैसे तो खूब नूराकुश्ती करते हैं पर जब चुनाव का माहौल बनता है तो सारे झगड़े ‘मुस्लिम एकता’ के नारे के सामने दम तोड़ते हुए नज़र आते हैं. आम पसमांदा मुसलमानों को मसलकी झगड़ों में साल-दर-साल उलझा कर और चुनाव के समय मुस्लिम एकता के नाम पर सत्ता पर अपनी भागीदारी पक्की करने की अगड़े मुसलमानों की इस कला का जवाब नहीं. पर अब वक्त करवट ले रहा है. अब पसमांदा मुसलमानों ने अगड़े मुसलमानों के ज़रिये की गयी मज़हब की व्याख्या की हकीक़त भी समझ ली है और मुस्लिम एकता का मतलब भी. अब वह बार-बार अगड़े मुसलमानों के जाल में फंसने वाले नहीं हैं. उनको अब ‘संसद’ (सरकारी इदारों) और ‘मस्जिद’ (मज़हबी इदारों) दोनों में अपनी आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी चाहिए. बात अब यहाँ से ही शुरू होगी!