मंडल कमीशन की सिफारिशों ने भारतीय समाज के वंचित वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण प्रणाली का आधार बनाया। उत्तर प्रदेश में मंडल कमीशन के अनुसार 52% पिछड़े वर्गों की संख्या है। इनमें लगभग 16% पसमांदा मुसलमान और शेष 36% हिन्दू पिछड़े वर्ग शामिल हैं।
1. पिछड़े वर्गों की सामाजिक संरचना
हिन्दू पिछड़े वर्ग: 36% हिन्दू पिछड़ों को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:
मजबूत पिछड़ी जातियाँ: यादव, कुर्मी, जाट, गुजर, और लोध जैसी जातियाँ, जिनकी संख्या 18-19% के करीब है।
अति पिछड़ी जातियाँ: मौर्या, सैनी, निषाद, कुम्हार, बढई, सुनार, लोहार, गौड़, नाई आदि। इनकी संख्या लगभग 17-18% है।
पसमांदा मुसलमान: पसमांदा मुसलमान, जो भारतीय मुस्लिम समाज का वंचित तबका है, उत्तर प्रदेश की पिछड़ी आबादी में लगभग 16% हिस्सेदारी रखते हैं।
2. राजनीतिक प्रतिनिधित्व में असमानता
पसमांदा मुसलमान और अति पिछड़े हिन्दू दोनों ही सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग हैं। बावजूद इसके, दोनों वर्गों की समान जनसंख्या के बाद भी राजनीतिक हिस्सेदारी में भारी अंतर देखने को मिलता है:
मजबूत पिछड़ी जातियों का प्रभुत्व: यादव, कुर्मी, जाट आदि जातियाँ अपनी बेहतर संगठनात्मक ताकत और राजनीतिक समझ के कारण सत्ता और राजनीति में बेहतर हिस्सेदारी रखती हैं।
पसमांदा मुसलमानों की उपेक्षा: राजनीतिक दलों (चाहे सेकुलर हों या कम्युनल) ने पसमांदा मुसलमानों की हिस्सेदारी को लगातार नजरअंदाज किया है। पंचायत से लेकर संसद तक, टिकट वितरण में पसमांदा मुसलमानों को प्राथमिकता नहीं दी जाती।
3. पसमांदा और राजनीतिक दलों की रणनीति
तथाकथित सेकुलर पार्टियाँ: अक्सर मुस्लिम नेतृत्व के नाम पर केवल अशराफ (उच्च वर्गीय मुसलमान) को बढ़ावा देती हैं। पसमांदा समाज की वास्तविक समस्याएँ, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और प्रतिनिधित्व, इनकी प्राथमिकता में नहीं होतीं।
घोषित कम्युनल पार्टियाँ: यह वर्ग पसमांदा मुसलमानों को अक्सर मुख्यधारा से अलग मानता है और उन्हें मुख्यत: वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करता है।
4. समाधान और संभावनाएँ
समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व: राजनीतिक दलों को टिकट वितरण में पसमांदा मुसलमानों और अति पिछड़े हिन्दुओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। सामाजिक न्याय की नीति के तहत जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित होनी चाहिए।
संगठनात्मक मजबूती: पसमांदा मुसलमानों को एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करनी होगी। समाज में शिक्षा, रोजगार, और जागरूकता के लिए विशेष कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है।
पसमांदा और अति पिछड़ों का गठजोड़: सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर पसमांदा और अति पिछड़े हिन्दुओं को एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़नी होगी।
निष्कर्ष: पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में जनसंख्या के लगभग बराबर होने के बावजूद, पसमांदा मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी बेहद कम है। यह केवल राजनीतिक दलों की रणनीति का नतीजा नहीं है, बल्कि पसमांदा समाज की सामाजिक और राजनीतिक कमजोरी को भी दर्शाता है। पसमांदा समाज को संगठित होकर न केवल अपने अधिकारों की माँग करनी होगी, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी समस्याएँ राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनें।
मोहम्मद यूनुस
मुख्य कार्यकारी अधिकारी
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