सामाजिक समानता और भाईचारे का संदेश हर धर्म में दिया गया है। इस्लाम भी समानता, न्याय, और इंसानियत का धर्म है। मुस्लिम समाज में असमानता और जाति-पांत की बुराईयाँ गहराई तक जड़ जमाए हुए हैं।
“फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं, और कहीं ज़ातें हैं
क्या ज़माने में पनपने की यही बातें हैं।”
इकबाल का यह कथन मुस्लिम समाज के भीतर छिपे सामाजिक विभाजन और ऊंच-नीच की सच्चाई को उजागर करता है। दुर्भाग्य से, मुस्लिम समाज में यह समस्या मौजूद है, और इसे नकारना केवल सच्चाई से भागने जैसा है।
मुस्लिम समाज में जाति-पांत और भेदभाव का इतिहास
इब्लीसवादी विचारधारा का प्रभाव
मुस्लिम समाज में ऊंच-नीच और जाति आधारित भेदभाव का आधार सामाजिक संरचना में गहराई से जड़ें जमाए हुए है। यह “इब्लीसवादी” विचारधारा के समान है, जो इंसानों को जन्म, जाति, और पेशे के आधार पर ऊंचा या नीचा मानती है। मुस्लिम समाज को अशराफ, अजलाफ, और अर्जाल जैसी श्रेणियों में बाँटा गया है। अशराफ: सैयद, शेख, पठान, और मुग़ल जैसे ऊंची जाति माने जाने वाले वर्ग। अजलाफ: मजदूर वर्ग, जैसे जुलाहे, दर्ज़ी, बढ़ई, लोहार।
अर्जाल: तथाकथित “नीच जातियां,” जिन्हें समाज में सबसे निचले पायदान पर रखा गया। ये विभाजन कुरआन और हदीस की शिक्षाओं के खिलाफ हैं, जो समानता और न्याय की शिक्षा देते हैं।
मजहबी और सामाजिक दोगलापन
मुस्लिम समाज के विद्वानों ने कुरआन के सिद्धांत के विरुद्ध इन असमानताओं को बनाए रखा है।
ओलमाओं ने जातियों के आधार पर फतवे दिए।
मुस्लिम शादियों में “कुफ़ु” (बराबरी) का सिद्धांत लागू किया गया, जो विवाह के लिए जाति और सामाजिक स्थिति की समानता को प्राथमिकता देता है।
कहावतें जैसे, “कोदो-महुआ अन्न नहीं, जुलाहा-धुनिया जन नहीं,” समाज में व्याप्त गहरी मानसिकता को दर्शाती हैं।
पसमांदा समाज की स्थिति और उत्पीड़न
पसमांदा (जो पीछे छूटे हैं) शब्द मुख्यतः उन मुस्लिम वर्गों के लिए प्रयुक्त होता है, जो सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं।
पसमांदा समाज की अधिकांश आबादी दलितों और पिछड़ों से जुड़ी हुई है।
इन्हें ऐतिहासिक रूप से भेदभाव और शोषण का सामना करना पड़ा है।
अशराफ वर्ग ने सत्ता और धार्मिक प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण बनाए रखा, जबकि पसमांदा समाज को निम्न श्रेणी के कार्यों और उपेक्षा का शिकार बनाया गया।
पसमांदा समाज के प्रति दुराग्रह
पसमांदा मुस्लिमों को अक्सर “धार्मिक रूप से कमतर” समझा जाता है।
सामाजिक समारोहों और धार्मिक कार्यक्रमों में पसमांदा वर्ग को हाशिए पर रखा जाता है।
मस्जिद और कब्रिस्तानों तक में भेदभाव के उदाहरण मिलते हैं।
पसमांदा महाज की भूमिका और उद्देश्य
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज का उद्देश्य मुस्लिम समाज में मौजूद जातिगत और सामाजिक असमानता को समाप्त करना है। यह संगठन केवल नारों और भाषणों तक सीमित नहीं है, बल्कि जमीनी स्तर पर सक्रिय है।
महाज के प्रमुख उद्देश्य
सामाजिक बराबरी की स्थापना: मुस्लिम समाज में जाति-पांत और ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करना।
शैक्षणिक और आर्थिक विकास: पसमांदा समाज के शैक्षणिक और आर्थिक अधिकार सुनिश्चित करना।
धार्मिक और सामाजिक सुधार: ओलमाओं द्वारा किए गए जातिगत भेदभाव का खंडन करना और इस्लाम के मूल संदेश को सामने लाना।
राजनीतिक सशक्तिकरण: पसमांदा समाज को राजनीतिक रूप से जागरूक करना और उनके अधिकारों की रक्षा करना।
महाज की रणनीति
जमीनी कार्य: महाज केवल किताबों और तकरीरों तक सीमित नहीं है, बल्कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में पसमांदा समाज के बीच जागरूकता अभियान चलाता है।
जातिगत भेदभाव का विरोध: महाज जातिगत असमानता के खिलाफ फतवे जारी करने की मांग करता है।
राजनीतिक भागीदारी: संगठन उन नेताओं और पार्टियों का समर्थन करता है, जो पसमांदा समाज के अधिकारों की बात करते हैं।
सामाजिक बराबरी: इस्लाम का मूल संदेश
इस्लाम का मूल सिद्धांत है कि सभी इंसान बराबर हैं। कुरआन में कहा गया है:
“अल्लाह के नजदीक सबसे श्रेष्ठ वह है, जो सबसे ज्यादा परहेज़गार है।” (सूरह हुजरात, 49:13)
पसमांदा महाज का दृष्टिकोण: समाज में ऊंच-नीच और जातिगत भेदभाव इस्लाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
नबी-ए-करीम (स.अ.व.) ने हज के विदाई भाषण में कहा:
“किसी अरबी को अजमी पर और किसी अजमी को अरबी पर कोई श्रेष्ठता नहीं।”
निष्कर्ष: सामाजिक बराबरी की दिशा में एक कदम
मुस्लिम समाज में जाति-पांत और भेदभाव की जड़ें गहरी हैं, लेकिन पसमांदा महाज इस असमानता को खत्म करने के लिए प्रयासरत है।
सामाजिक बराबरी केवल नारेबाजी से नहीं आएगी, बल्कि इसके लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा।
महाज का उद्देश्य मुस्लिम समाज को जातिगत बंधनों से मुक्त कर इस्लाम के असली संदेश—समानता, भाईचारा और न्याय—को स्थापित करना है।
पसमांदा महाज का मिशन इस बात की मिसाल है कि जब संगठन जातिगत भेदभाव के खिलाफ ईमानदारी से काम करता है, तो समाज में सकारात्मक बदलाव संभव है। सामाजिक समानता को स्थापित करना समय की मांग है, और यह कार्य न केवल पसमांदा समाज, बल्कि पूरे मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए आवश्यक है।