1. ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस: पसमांदा मुस्लिमों के नेतृत्व में स्थापित यह संगठन स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय था। इसके नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी, जो स्वयं एक स्वतंत्रता सेनानी थे, ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन किया। 1919 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन और 1920 में खिलाफत आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका रही। अब्दुल कय्यूम ने बिहार में पसमांदा समुदाय को संगठित कर ब्रिटिश शासन के खिलाफ जागरूकता फैलाई और 16 साल की उम्र में उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन के लिए जेल भी हुई।
2. खिलाफत आंदोलन में भागीदारी: पसमांदा मुस्लिमों ने खिलाफत आंदोलन (1919-24) में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आंदोलन था। इस आंदोलन ने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया, और पसमांदा समुदाय के लोग, विशेष रूप से बुनकर (जुलाहे) और अन्य शिल्पकार वर्ग, इसमें शामिल हुए।
3. 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम: 1857 के विद्रोह में पसमांदा मुस्लिमों ने भी हिस्सा लिया। अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में हुए इस विद्रोह में कई पसमांदा समुदायों के लोग, जैसे कुरैशी और अन्य शिल्पकार, शामिल थे। इस विद्रोह को अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है।
4. जातिवाद और सामाजिक सुधार के लिए आंदोलन: पसमांदा मुस्लिमों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, बल्कि मुस्लिम समाज के भीतर जातिवाद (सैयदवाद) के खिलाफ भी आवाज उठाई। बाबा कबीर जैसे संतों ने 15वीं सदी से ही इस्लाम में व्याप्त जातिगत भेदभाव की आलोचना की थी, जो पसमांदा आंदोलन का प्रारंभिक आधार बना। 20वीं सदी में अब्दुल कय्यूम अंसारी और आसिम बिहारी जैसे नेताओं ने पसमांदा समुदाय को संगठित कर सामाजिक और शैक्षिक सुधार के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान दिया।
5. स्थानीय स्तर पर योगदान: पसमांदा मुस्लिमों ने स्थानीय स्तर पर विभिन्न आंदोलनों में हिस्सा लिया। उदाहरण के लिए, त्रिपुरा में त्रिपुरा कलारन (कुदिकिट्टीकुमारन) जैसे पसमांदा मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन किए और जेल गए।
6. महिलाओं की भूमिका: पसमांदा मुस्लिम महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया। बेगम हजरत महल, जो अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी थीं, ने 1857 के विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अवध में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया और हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत किया।
चुनौतियां और अनदेखी
– ऐतिहासिक अनदेखी: पसमांदा मुस्लिमों का योगदान अक्सर उच्च वर्ग (अशराफ) मुस्लिमों के नेतृत्व में हुए आंदोलनों के सामने कम दर्ज किया गया। इसका कारण यह था कि अशराफ मुस्लिमों का सत्ता और शिक्षा पर अधिक प्रभाव था।
– सामाजिक भेदभाव: पसमांदा मुस्लिमों को मुस्लिम समाज में भी भेदभाव का सामना करना पड़ा, जिसके कारण उनकी आवाज और योगदान को दबाया गया। फिर भी, उन्होंने अपने सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के बावजूद स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता दिखाई।
– आधुनिक दस्तावेजीकरण की कमी: 1931 की जनगणना के बाद जातिगत आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिसके कारण पसमांदा मुस्लिमों की सटीक संख्या और उनके योगदान को पूरी तरह से दर्ज करना मुश्किल है। अनुमान के अनुसार, मुस्लिम आबादी का 80-85% पसमांदा समाज है
निष्कर्ष- पसमांदा मुस्लिमों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न रूपों में योगदान दिया, चाहे वह संगठित आंदोलनों जैसे ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस के माध्यम से हो, 1857 के विद्रोह में हिस्सा लेकर हो, या खिलाफत और असहयोग आंदोलनों में भाग लेकर। उनके योगदान को अब धीरे-धीरे पहचान मिल रही है, लेकिन अभी भी इसे व्यापक रूप से इतिहास में शामिल करने की जरूरत है। बाबा कबीर से लेकर अब्दुल कय्यूम अंसारी तक, पसमांदा समुदाय ने न केवल स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी, बल्कि सामाजिक समानता के लिए भी संघर्ष किया।