धार्मिक पहचान के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की परंपरा पसमांदा समुदाय के साथ भेदभावपूर्ण रही : मोहम्मद यूनुस

पसमांदा समाज के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की स्थिति पर एक गहन विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय राजनीति में जातिगत और है। यह स्थिति मुस्लिम समाज के भीतर भी विशेषकर देखने को मिलती है, जहां अशराफ जातियों को अधिक राजनीतिक हिस्सेदारी दी जाती है, जबकि पसमांदा समाज, जो मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है, प्रतिनिधित्व में बहुत पीछे रह जाता है।

मुस्लिम समाज के भीतर अशराफ समुदाय के लोगों को संसद और विधानसभाओं में अपेक्षाकृत अधिक प्रतिनिधित्व मिला है। आंकड़ों के अनुसार, पहली से चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए 400 मुस्लिम सांसदों में से 340 अशराफ समुदाय से थे, जबकि पसमांदा समुदाय से मात्र 60 प्रतिनिधि थे। यदि मुस्लिम समाज में कुल आबादी का हिसाब लगाया जाए तो अशराफ की आबादी लगभग 2.01% और पसमांदा की 11.4% है। इसके बावजूद अशराफ को उनकी आबादी के दोगुने से भी अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला है, जबकि पसमांदा समुदाय का प्रतिनिधित्व एक प्रतिशत से भी कम रहा है।

इतिहास में भी मुस्लिम समाज के नाम पर विशेषकर शेख, सैयद, मिर्ज़ा, और मुगल जैसी जातियों को ही अधिक लाभ मिला, जबकि अन्य जातियों, जिन्हें पसमांदा कहा जाता है, के हिस्से में नारा लगाना, झंडा ढोना और चुनाव प्रचार के दौरान केवल व्यवस्थापन का कार्य आता रहा।

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ इसी भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाता है। संगठन का मानना है कि मुस्लिम के नाम पर नहीं, बल्कि जातियों की आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इसके लिए पसमांदा महाज़ निरंतर संघर्षरत है और पसमांदा समाज के लोगों को जागरूक कर उन्हें सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर संगठित कर रहा है ताकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद कर सकें।

निष्कर्ष: यह स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में पसमांदा समाज को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। इस मुद्दे को लेकर पसमांदा महाज़ लगातार प्रयासरत है कि इस समाज को उनकी जनसंख्या के अनुपात में राजनीतिक हिस्सेदारी मिले, ताकि उनके अधिकारों की रक्षा और उनकी समस्याओं का समाधान हो सके।