पसमांदा समाज और जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम

भारत में मुस्लिम समाज को अक्सर एक समरूप समुदाय के रूप में देखा जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह समाज भी हिंदू समाज की तरह जातियों, सामाजिक स्तरों, और आर्थिक असमानताओं में बंटा हुआ है। इस सामाजिक संरचना में पसमांदा समुदाय—जो मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा और सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे पिछड़ा हिस्सा है। पसमांदा मुस्लिम समाज लंबे समय से अपनी पहचान, अधिकारों, और सामाजिक सम्मान की लड़ाई लड़ रहा है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा 2025-26 की जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने के निर्णय ने पसमांदा समाज के लिए नई उम्मीदें जगाई हैं। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ जैसे संगठनों ने इस पहल का स्वागत किया है, लेकिन साथ ही कुछ स्पष्ट और ठोस मांगें भी रखी हैं। यह लेख पसमांदा समाज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उनकी चुनौतियों, जातिगत जनगणना के महत्व, और इस समुदाय की मांगों पर विस्तृत रूप से प्रकाश डालता है।

पसमांदा समाज: ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ
“पसमांदा” शब्द उर्दू-फारसी मूल का है, जिसका अर्थ है “पीछे छूटे” या “दबे-कुचले” लोग। यह शब्द भारतीय मुस्लिम समाज के उन समुदायों को संदर्भित करता है जो सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं। भारतीय मुस्लिम समाज को सामाजिक संरचना के आधार पर तीन प्रमुख वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है:

1. अशरफ: यह मुस्लिम समाज का उच्च वर्ग है, जिसमें सैय्यद, शेख, पठान, मिर्जा, मुगल, रिजवी आदि शामिल हैं। ये समुदाय ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक रूप से प्रभावशाली रहे हैं। अशरफ वर्ग को अक्सर विदेशी मूल (अरब, तुर्क, या अफगान) का माना जाता है, और इनका सामाजिक वर्चस्व आज भी कायम है।

2. अजलाफ: यह मध्यम वर्ग है, जिसमें अंसारी (जुलाहा), मंसूरी, कुरैशी, सलमानी, नाई, बुनकर, और अन्य कारीगर व श्रमिक समुदाय शामिल हैं। ये समुदाय मुख्य रूप से स्वदेशी मूल के हैं और हिंदू जातियों से धर्मांतरण के बाद मुस्लिम बने। ये सामाजिक और आर्थिक रूप से अशरफ से नीचे माने जाते हैं।

3. अरजाल: यह मुस्लिम समाज का सबसे निचला वर्ग है, जिसमें दलित मुस्लिम समुदाय जैसे भंगी, हलालखोर, मेहतर, जुलाहा और अन्य शामिल हैं। ये समुदाय हिंदू दलित जातियों से इस्लाम अपनाने के बाद भी सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार का शिकार रहे।

1931 की जनगणना, जो भारत में अंतिम बार जातिगत आंकड़े एकत्र करने वाली थी, के आधार पर अनुमान है कि मुस्लिम आबादी का 80-85% हिस्सा अजलाफ और अरजाल वर्गों से आता है। इसके बावजूद, अशरफ वर्ग ने मुस्लिम समाज के नेतृत्व, राजनीति, धार्मिक संस्थानों, और सामाजिक संसाधनों पर अपना वर्चस्व बनाए रखा है। इस असमानता के कारण पसमांदा समाज ने अपनी विशिष्ट पहचान और अधिकारों के लिए संगठित आंदोलन शुरू किया।

पसमांदा समाज की शिकायतें: ऐतिहासिक अन्याय और वर्तमान चुनौतियां
पसमांदा समाज का दावा है कि उन्हें मुस्लिम समाज के अशरफ वर्ग से भेदभाव का सामना करना पड़ा है। ऐतिहासिक रूप से, उनके पूर्वजों को जाति के आधार पर अपमान और सामाजिक बहिष्कार सहना पड़ा। उदाहरण के लिए:
– उन्हें चारपाई पर बैठने की अनुमति नहीं थी। – उन्हें जातिगत आधार पर गालियां दी जाती थीं। – सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में उन्हें अलग-थलग रखा जाता था।
– मस्जिदों, कब्रिस्तानों में भी उनके साथ भेदभाव होता था, जैसे अलग लाइन में नमाज पढ़ने को मजबूर करना। कब्रिस्तानों में आज भी इस प्रकार का बर्ताव किया जाता है।
पसमांदा समाज यह सवाल उठाता है कि जब उनके साथ यह भेदभाव हो रहा था और आज भी समाज में किसी न किसी रूप में मौजूद है, तब अशरफ वर्ग के उलमा, मौलवी, और बुद्धिजीवी कहां थे? और आज इस पर क्या कर रहे हैं। क्यों उन्होंने पसमांदा समाज के अधिकारों की रक्षा नहीं की? इसके बजाय, अशरफ वर्ग ने धार्मिक और सामाजिक संस्थानों पर अपनी पकड़ मजबूत की और पसमांदा समुदाय को हाशिए पर रखा।
वर्तमान में, पसमांदा समाज को आशंका है कि जातिगत जनगणना के दौरान अशरफ वर्ग के नेता और धार्मिक विद्वान फतवे जारी कर सकते हैं, जिसमें मुस्लिमों को अपनी जाति या बिरादरी की बजाय केवल “मुसलमान” लिखने के लिए कहा जाएगा। यह एक ऐसी रणनीति हो सकती है, जिससे पसमांदा समाज की विशिष्ट जातिगत पहचान और उनके सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को छिपाया जाए। पसमांदा समाज का तर्क है:
– अगर मुस्लिम समाज में जातियां नहीं थीं, तो फिर उनके साथ ऐतिहासिक भेदभाव क्यों हुआ? – अगर सभी मुस्लिम बराबर हैं, तो अशरफ वर्ग ने उनके अधिकारों और संसाधनों पर कब्जा क्यों किया
इसके अलावा, पसमांदा समाज का यह भी कहना है कि मुस्लिम समाज के नेतृत्व और राजनीति में उनकी भागीदारी नगण्य रही है। उदाहरण के लिए, मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व और धार्मिक संस्थानों में अशरफ वर्ग का वर्चस्व रहा है, जबकि पसमांदा समुदाय को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय या सियासत?
जातिगत जनगणना का मुद्दा भारत में दशकों से चर्चा में रहा है। 1931 के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत आंकड़े एकत्र नहीं किए गए हैं, हालांकि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की गणना नियमित रूप से होती रही है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अन्य समुदायों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत सर्वेक्षण (SECC) कराया, लेकिन इसके आंकड़े जटिलताओं और विवादों के कारण सार्वजनिक नहीं किए गए।
हाल ही में, केंद्र सरकार ने 2025-26 में होने वाली जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने का फैसला किया है। इस निर्णय का स्वागत विभिन्न राजनीतिक दलों, ओबीसी संगठनों, और पसमांदा समुदाय ने किया है। कई नेताओंएवम् ओबीसी संगठनों जैसे नीतीश कुमार, स्व रामविलास पासवान राहुल गांधी, अखलेश यादव,तेजस्वी यादव, और क्षेत्रीय दलों ने इस मांग को जोर-शोर से उठाया था। बिहार जैसे राज्यों में, जहां 2022 में नीतीश कुमार सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण कराया, इसने जातिगत जनगणना की मांग को और बल दिया।

जातिगत जनगणना के पक्ष में तर्क:
1. सामाजिक न्याय: सटीक जातिगत आंकड़ों के बिना, सरकार की कल्याणकारी योजनाएं उन तक नहीं पहुंच पातीं जो वास्तव में वंचित हैं। पसमांदा समाज जैसे समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए जातिगत जनगणना आवश्यक है।
2. नीति निर्माण: आंकड़े सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और आरक्षण जैसी योजनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करेंगे।
3. पहचान की मान्यता: पसमांदा समाज जैसे हाशिए पर पड़े समुदायों को उनकी विशिष्ट पहचान और जरूरतों के आधार पर मान्यता मिलेगी।
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व: जातिगत आंकड़े वंचित समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

जातिगत जनगणना के खिलाफ तर्क:
1. जातिवादी विभाजन: कुछ आलोचकों का मानना है कि जातिगत जनगणना समाज में जातिवादी विभाजन को और गहरा सकती है।
2. राजनीतिक दुरुपयोग: इसका उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है, खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहां जातिगत समीकरण चुनावी परिणाम तय करते हैं।
3. जटिलता: भारत में लाखों जातियां और उपजातियां हैं, जिनका वर्गीकरण और गणना एक जटिल और समय लेने वाली प्रक्रिया होगी।

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ की मांगें
ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ ने जातिगत जनगणना के निर्णय का स्वागत किया है, लेकिन इस प्रक्रिया को प्रभावी और निष्पक्ष बनाने के लिए कुछ स्पष्ट मांगें रखी हैं:

1. केवल जाति का कॉलम, धर्म का नहीं:
– संगठन का मानना है कि जनगणना में धर्म का कॉलम शामिल करना अनावश्यक है। जातिगत जनगणना का उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करना है, न कि धार्मिक पहचान को उजागर करना।
– धर्म का कॉलम शामिल करने से पसमांदा समाज की विशिष्ट जातिगत पहचान धुंधली हो सकती है, क्योंकि अशरफ वर्ग के कुछ नेता इसे “मुसलमान” के रूप में सामान्यीकृत करने की कोशिश कर सकते हैं।

2. मुस्लिम समाज की जातियों का वर्गीकरण:
– अशरफ: सैय्यद, शेख, पठान, मिर्जा, मुगल, रिजवी आदि को सामान्य वर्ग में सूचीबद्ध किया जाए, क्योंकि ये समुदाय सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त हैं।
– अजलाफ (OBC): अंसारी, मंसूरी, कुरैशी, सलमानी, बुनकर आदि को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के तहत शामिल किया जाए, ताकि उन्हें आरक्षण और अन्य लाभ मिल सकें।
– अरजाल (SC/ST): भंगी, हलालखोर, मेहतर जैसे दलित मुस्लिम समुदायों को अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के तहत सूचीबद्ध किया जाए। वर्तमान में, केवल गैर-मुस्लिम दलित समुदायों को SC का दर्जा प्राप्त है, जिसे पसमांदा समाज अन्यायपूर्ण मानता है।

3. ठोस नीतिगत कदम:
– जनगणना केवल आंकड़े जुटाने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। इसके आधार पर सरकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और सामाजिक सम्मान जैसे क्षेत्रों में पसमांदा समाज के लिए ठोस योजनाएं लागू करनी चाहिए।
– उदाहरण के लिए, अरजाल समुदाय को SC/ST का दर्जा देने से उन्हें सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिल सकता है।

4. जागरूकता अभियान:
– संगठन ने मांग की है कि सरकार और सामाजिक संगठन पसमांदा समुदायों में जागरूकता अभियान चलाएं, ताकि वे अपनी जातिगत पहचान को जनगणना में सही ढंग से दर्ज करें।
– यह सुनिश्चित करना होगा कि धार्मिक नेताओं या अशरफ वर्ग के दबाव में लोग अपनी जाति की बजाय केवल “मुसलमान” न लिखें।

पसमांदा समाज के लिए जातिगत जनगणना का महत्व

जातिगत जनगणना से पसमांदा समाज को कई तरह से लाभ हो सकता है:
1. सामाजिक स्थिति की स्पष्ट तस्वीर:
– यह पहली बार होगा कि मुस्लिम समाज की विभिन्न जातियों और बिरादरियों की संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक आकलन होगा।
– इससे यह स्पष्ट होगा कि कौन सी जातियां उच्च, मध्यम, और निम्न वर्ग में आती हैं, जिससे नीति निर्माण में मदद मिलेगी।

2. नीति निर्माण में सहायता:
– सटीक आंकड़ों के आधार पर सरकार ऐसी योजनाएं बना सकती है जो विशेष रूप से पसमांदा समाज के उत्थान के लिए हों।
– उदाहरण के लिए, अजलाफ समुदाय को OBC और अरजाल समुदाय को SC/ST का दर्जा देने से उन्हें आरक्षण, छात्रवृत्ति, और अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है।

3. सामाजिक जागरूकता:
– जनगणना से पसमांदा समाज की विशिष्ट पहचान को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलेगी, जिससे उनकी आवाज को और बल मिलेगा।
– यह अशरफ वर्ग के सामाजिक और धार्मिक वर्चस्व को चुनौती देने में भी मदद करेगा।

4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
– जातिगत आंकड़े पसमांदा समाज के लोगों को उनकी संख्या और स्थिति के आधार पर अधिक प्रभावी ढंग से अपने अधिकारों की मांग करने में सक्षम बनाएंगे।
– इससे उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व में वृद्धि हो सकती है, जो अभी तक अशरफ वर्ग के पास केंद्रित है।

5. ऐतिहासिक अन्याय का सुधार:
– जातिगत जनगणना पसमांदा समाज के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को उजागर करेगी और उनके लिए सामाजिक-आर्थिक समानता की दिशा में कदम उठाने का अवसर प्रदान करेगी।

चुनौतियां और आशंकाएं

जातिगत जनगणना के बावजूद, कुछ चुनौतियां और आशंकाएं बनी रहेंगी:

1. अशरफ वर्ग का प्रतिरोध: – पसमांदा समाज को आशंका है कि अशरफ वर्ग के कुछ धार्मिक नेता और बुद्धिजीवी जनगणना में केवल “मुसलमान” लिखने के लिए फतवे या दबाव डाल सकते हैं। इससे पसमांदा समाज की जातिगत पहचान और उनके पिछड़ेपन को छिपाया जा सकता है। – अशरफ वर्ग का यह डर हो सकता है कि जातिगत आंकड़े उनके सामाजिक वर्चस्व को कमजोर करेंगे।

2. राजनीतिक दुरुपयोग:
– कुछ आलोचकों का मानना है कि जातिगत जनगणना का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है।
– इससे सामाजिक एकता को नुकसान पहुंच सकता है और समाज में जातिवादी तनाव बढ़ सकता है।

3. जटिलताएं:
– भारत में जातियों और उपजातियों की संख्या लाखों में है, और इनका वर्गीकरण एक जटिल प्रक्रिया होगी।
– एक ही जाति को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग वर्गों (SC, OBC, या सामान्य) में रखा जा सकता है, जिससे एकरूपता लाना मुश्किल होगा।
– मुस्लिम समाज में कई बिरादरियां क्षेत्रीय और सांस्कृतिक रूप से भिन्न हैं, जिससे उनकी सटीक गणना चुनौतीपूर्ण होगी।

4. नीतिगत कार्यान्वयन: – केवल आंकड़े जुटाने से काम नहीं चलेगा। सरकार को इन आंकड़ों के आधार पर ठोस नीतियां बनानी होंगी, जो पसमांदा समाज की स्थिति में वास्तविक सुधार ला सकें। – यदि सरकार नीतिगत कदम उठाने में विफल रही, तो जनगणना का उद्देश्य अधूरा रह जाएगा।

5. सामाजिक जागरूकता की कमी:
– पसमांदा समाज के कई लोग अपनी जातिगत पहचान को लेकर पूरी तरह जागरूक नहीं हैं। कुछ लोग धार्मिक या सामाजिक दबाव में अपनी जाति दर्ज करने से बच सकते हैं।
– इसके लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत होगी।

जातिगत जनगणना भारत में सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम हो सकता है, खासकर पसमांदा समाज जैसे वंचित और हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ की मांगें—जैसे केवल जाति का कॉलम शामिल करना, मुस्लिम समाज की जातियों को OBC, SC/ST, और सामान्य वर्ग में सूचीबद्ध करना, और ठोस नीतिगत कदम उठाना—इस दिशा में एक स्पष्ट और व्यवहारिक रोडमैप प्रदान करती हैं।

हालांकि, इस प्रक्रिया में कई चुनौतियां हैं, जैसे अशरफ वर्ग का संभावित प्रतिरोध, राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका, और जटिल वर्गीकरण की समस्या। इन चुनौतियों के बावजूद, यदि जातिगत जनगणना को निष्पक्ष और पारदर्शी ढंग से लागू किया गया, तो यह पसमांदा समाज के लिए सामाजिक-आर्थिक समानता और सम्मान की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हो सकता है।

पसमांदा समाज का संघर्ष केवल जातिगत जनगणना तक सीमित नहीं है। यह एक बड़े सामाजिक आंदोलन का हिस्सा है, जो समानता, अवसर, और सामाजिक सम्मान की मांग करता है। सरकार, समाज, और धार्मिक नेताओं की जिम्मेदारी है कि इस ऐतिहासिक अवसर का उपयोग पसमांदा समाज के उत्थान के लिए किया जाए, न कि इसे केवल सियासी खेल का हिस्सा बनाया जाए। जैसा कि मौलाना शहाबुद्दीन रजवी ने कहा, “जातीय जनगणना तभी सार्थक होगी जब इसके बाद ठोस योजना बनाकर उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सम्मान की दिशा में आगे बढ़ाया जाए।” पसमांदा समाज की यह लड़ाई न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिए एक समावेशी और न्यायपूर्ण भविष्य की नींव रख सकती है।

मुहम्मद युनुस
मुख्य कार्यकारी अधिकारी सीईओ
ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़